SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) कहने से वाणीक्रिया करने वाली वागिन्द्रिय का एवं काय कहने से इसके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रिय का ग्रहण हो जाता है।' कर्म-प्रक्रिया का प्रारम्भ भावकरणरूप योग से 'कर्म' की प्रक्रिया जब प्रारम्भ होती है, तब सीधा सम्बन्ध इन मनवचन-काया के स्थूल रूप द्रव्यकरणरूप से नहीं होता, अपितु इनके भावकरणरूप सूक्ष्म रूप से होता है। इसीलिए शास्त्र में मन-वचन-कायरूप (अथवा पूर्वोक्त तीनों करण रूप) योग दो-दो रूप में बताए गए हैं-द्रव्यरूप में और भावरूप में। अर्थात् ये दोनों ही मन-वचन-काय के भेद से तीनतीन प्रकार के हैं:-द्रव्यमन-भावमन, द्रव्यवचन- भाववचन, द्रव्यकायभावकाय। द्रव्यरूप और भावरूप मन-वचन-काया का स्वरूप और कार्य श्री जिनेन्द्रवर्णी ने इनका विश्लेषण इस प्रकार किया है-मन कहने से ज्ञानेन्द्रियों सहित पूरे अन्तःकरण का ग्रहण होता है। इसलिए मन से पहले ज्ञानेन्द्रियों का विचार करते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ दो प्रकार की मानी गई हैंद्रव्येन्द्रियाँ और भावेन्द्रियाँ। परमाणुओं से निर्मित नेत्रगोलक आदि की रचना और पृथक्-पृथक् आकुति रूप उपकरण द्रव्येन्द्रियाँ हैं और इनकी पृष्ठभूमि में अवस्थित देखने-सुनने आदि की चेतना शक्ति (अर्थात्देखने-सुनने आदि की लब्धि, क्षमता एवं योग्यता तथा देखने सुनने आदि का उपयोग) भावेन्द्रियाँ है।" ___मन भी दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । इस शरीर के भीतर हृदय-स्थान पर सूक्ष्म प्राणवाहिनी नाड़ियों की एक अष्टदल-कमल के आकार वाली ग्रन्थि है। योगदर्शन के आचार्य इसे अनाहत चक्र कहते हैं। यही जैनाचार्यों का अभिप्रेत द्रव्यमन है। २. ........परमाणुओं से निर्मित होने के कारण अष्टदल कमल वाला उक्त चक्र द्रव्यमन है, और भावेन्द्रिय की भांति इसकी पृष्ठभूमि में स्थित संकल्प-विकल्प करने की, तथा चेतना का उपयोग होने के कारण मनन करने की वह चेतनाशक्ति भावमन है। अन्तःकरण के शेष तीन अंग भी द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। दोनों भकुटियों के मध्य में स्थित द्विदलीय कमल के आकार का आज्ञाचक्र द्रव्यबुद्धि है और उसकी पृष्ठभूमि में स्थित निर्णय करने की (चेतना-शक्ति भावबुद्धि है। कण्ठस्थान में स्थित द्वादश दल-कमल के १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. १०९-१११ २. दिगम्बर परम्परा में द्रव्यमन का स्थान हृदय माना है पर श्वेताम्बर ग्रन्थों में द्रव्यमन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है। देखें- दर्शन और चिन्तन-भाग १, पृ. १४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy