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४८० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३),
अन्तःकरण जब तक बहिर्मुखी रहता है, तब तक ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व सभी कर्म बन्धनकारक होते हैं। त्रिविध करण के पांच ज्ञानकरण, पाँच कर्मकरण और चार अन्तःकरण, यों १४ भागों में विभक्त करणों की पृष्ठभूमि में, चेतना ( आत्मा) नाम की प्रसिद्ध शक्ति है, जो अपने संकल्प द्वारा इन सबको अपने-अपने कार्यों में नियुक्त करती हैं। वह चौदह प्रकार की न होकर एक ही है। जिस करण के प्रति यह शक्ति (आत्मा) उपयोगयुक्त होती है, वह करण ही काम करता है, शेष सब करण उस समय निश्चेष्ट रहते हैं। चेतनाशक्ति का करणों के प्रति उपयुक्तिकरण __आकाशीय विद्युत के समान शीघ्रता के साथ चौदह करणों में उपयोगयुक्त रहने के कारण यह एक ही शक्ति चौदह रूप में हुई प्रतीत होती है। परन्तु वस्तुतः एक समय में वह एक ही करण के प्रति उपयुक्त होती है। उस समय एक ही करण कार्य करता है, शेष नहीं। जैसे-टॉर्च के प्रकाश को किसी एक ही वस्तु पर फोकस (कन्द्रित) कर देने पर केवल वही वस्तु दिखाई देती है, इसी प्रकार इस चेतना शक्ति (आत्मा) को भी एक विषय के प्रति (एक करण को) उपयुक्त (कन्द्रित) कर देने पर वही एक विषय जाना या किया जाता है, अन्य नहीं। एक ही चेतनाशक्ति का उपयुक्तिकरण दो प्रकार का
करणों के प्रति चेतना शक्ति (आत्मा) का यह उपयुक्तिकरण दो प्रकार का जैनागमों में माना गया है- (१) कर्तृत्व पक्ष में योग (त्रिविध) के रूप में और ज्ञातृत्व तथा भोक्तृत्वपक्ष में उपयोग के रूप में। ज्ञातृत्व पक्ष में विषय की प्रतीति प्रधान है, तथा भोक्तृत्व पक्ष में किसी विषय को आत्मसात् करके तज्जनित हर्ष-विषाद की या सुख-दुःख की प्रतीति ही प्रधान होती है; कर्तृत्व नहीं। इसी प्रकार कर्तृत्व पक्ष में हलन-चलन रूप क्रिया प्रधान होती है। किन्तु ज्ञातृत्व तथा भोक्तृत्व पक्ष में विषयों की तथा तज्जनित हर्ष-विषाद की प्रतीति करने वाली चेतना तो कोई अन्य हो और करनेधरने वाली चेतना कोई अन्य हो, ऐसा नहीं होता। एक ही चेतना दो कार्य करती है। जानने तथा भोगने के समय वह विषय की एवं हर्ष-विषाद की प्रतीति करती है और करने के समय वह हलन-चलन रूप कार्य में प्रवृत्त होती है। प्रतीति करते समय उसकी 'उपयोग' एवं कार्य करते समय 'योग' नामक शास्त्रीय संज्ञा है। चेतना में दोनों प्रकार की शक्तियाँ हैं-ज्ञानशक्ति १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. ९८-९९-१००
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