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________________ कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४७७ ज्ञानकरण की भांति कर्मकरण भी पांच हैं-वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ (गुह्येन्द्रिय)। वाणी से बोलने का, हाथ से लेने-देने का या उठाने-रखने का, पैर से चलने-फिरने का, उछलने-कूदने तथा दौड़नेभागने का, गुदा से मल त्याग का तथा उपस्थ यानी मूत्रेन्द्रिय या जननेन्द्रिय से मूत्रविसर्जन का और कामक्रीड़ा का काम किया जाता है, इसलिए इन्हें कर्म-करण कहा जाता है। चूंकि इन पाँचों से किसी न किसी रूप में हलन-चलन रूप क्रिया की सिद्धि होती है, कुछ जानने की नहीं। इसलिए इन्हें कर्म-करण कहते हैं। वैदिक ग्रन्थों में ज्ञानकरण को ज्ञानेन्द्रिय और कर्म-करण को कर्मेन्द्रिय कहा गया है। शरीर के अंग होने के कारण जैन शास्त्रों में कर्मेन्द्रियों का पृथक् उल्लेख नहीं है। फिर भी कर्म-प्रक्रिया को भलीभांति समझने के लिए इनका पृथक् उल्लेख करना न्यायसंगत है। ये दसों ही इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रतिनियत विषयों को जानने तथा करने के साथ-साथ उन-उन विषयों के प्रति तन्मय होकर विषय रसास्वादन भी करती हैं, रुचि-अरुचि या प्रीति-अप्रीति का अनुभव करती हैं। जैसे-आँखें अपने समक्ष उपस्थित हुए रूप (दृश्य) को जानने के साथ-साथ मनोज्ञता- अमनोज्ञता की अनुभूति अन्तःकरण की सहायता से करती हैं। इसी कारण कभी-कभी तन्मय होकर उक्त रूप को निहारती प्रतीत होती हैं। हाथ किसी पदार्थ को ग्रहण करने के साथ-साथ उसकी कोमलता-कठोरता आदि का स्पर्श भी करते हैं और अन्तःकरण की सहायता से मनोज्ञता-अमनोज्ञता की रसानुभूति भी करते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इनके भोक्तृत्व (भोगने) का काम अन्तःकरण का है, बहिःकरण रूप १० इन्द्रियों का नहीं। यद्यपि ज्ञानेन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रियों में उपस्थ ये चार इन्द्रियाँ व्यावहारिक दृष्टि से भोगेन्द्रियाँ मानी जाती हैं, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ये चारों तथा इनके साथ शेष छह इन्द्रियाँ भी वस्तुतः सीधी तौर पर (Directly) ज्ञातृत्व और कर्तृत्व की ही करण (साधन) हैं, भोक्तृत्व की नहीं। परम्परा से भोग की साधन होने पर भी अन्तःकरण ही इनकी सहायता से वास्तविक भोक्ता होता है। . अन्तःकरण के चार विभाग हैं-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। शास्त्रों में 'मन' शब्द का ही प्रयोग अधिकांश रूप से किया गया है। अन्य तीन शब्दों का प्रयोग वहाँ अत्यन्त अल्प है। वहाँ 'मन' शब्द के कहने से १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. ९५-९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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