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________________ ४७६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) आदि पर ममत्व या स्वामित्व करना या व्यक्त करना आदि भी भोक्तृत्व कर्म में गर्भित है। अपनी लिखी हुई पुस्तक, रचना या अपने द्वारा किये हुए कार्य, भाषण, गायन आदि की प्रशंसा करना और दूसरे के द्वारा लिखी हुई पुस्तक आदि तथा किये हुए भाषण, गायन आदि कार्य की निन्दा - आलोचना, करना, यहाँ तक कि अपने से सम्बन्धित समस्त कार्यों में गर्व, मद, अहंकार की अनुभूति एवं अभिव्यक्तिकरण करना भी भोक्तृत्वकर्म कहलाता है। इसी प्रकार भूतकाल में उपभोग किये हुए का स्मरण करके तथा वर्तमान में प्राप्त इष्टानिष्ट विषयों का सेवन करते समय सुख-दुख या हर्ष - विषाद की प्रतीति होना एवं आगामीकाल में प्राप्त होने की सम्भावना से सम्भावित इष्टानिष्ट विषयों के लिए सुख-दुःख की कल्पना एवं प्रतीति करना भी भोक्तृत्वकोटि के कर्म' कहलाते हैं। इन और ऐसे ही संकल्प या इच्छापूर्वक किये गए ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व कर्म कृतक कहलाते हैं। कृतंक कोटि के कर्म ही आस्रव और बन्ध के हेतु होते हैं। विविध कृतक कर्मों के चौदह करण और उनका प्रकार किन्तु तीनों प्रकार के कृतक कर्मों में से किसी भी कोटि का कर्म हो, बिना कारण या 'करण' (साधन) के होना असम्भव है। कारण या करण के बिना कोई भी कार्य सम्भव नहीं, यह न्यायशास्त्र का मुख्य सिद्धान्त है। जिसके द्वारा या जिसकी सहायता से कोई कार्य या कर्म किया जाए, उसे करण या कारण कहते हैं । कारण, करण, हेतु और साधन ये चारों शब्द एकार्थक है। पूर्वोक्त त्रिविध कृतक कर्म के होने में प्रमुख साधकतम करण दो प्रकार का है - अन्तःकरण और बहिःकरण । आँख, कान, हाथ, पैर आदि बहिःकरण हैं और मन आदि अन्तःकरण हैं । बहिःकरण के दो विभाग हैं - ज्ञानसाधक करण और कर्मसाधक करण । ज्ञातृत्व कर्म के साधन को ज्ञान-करण और कर्तृत्व कर्म के साधन को कर्म-करण कहा जाता है । भोक्तृत्व कर्म का साधन अन्तःकरण है। पांच ज्ञानकरण प्रसिद्ध हैं - श्रोत्र (कर्ण), नेत्र, घ्राण, जिह्वा (रसना) और त्वक्। `इनसे क्रमशः सुनकर, देखकर, सूंघकर, चखकर और छूकर अपनेअपने प्रतिनियत विषय को जाना जाता है। चूंकि ये जानने के काम में ही साधक होते हैं, हलन-चलन रूप से कुछ क्रिया करने के काम में नहीं इसलिए इन्हें ज्ञानकरण कहते हैं। १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. ९२-९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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