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________________ कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४७५ और उपयोग में नियोजन, (४) त्रिविध योग का विश्लेषण, (५) त्रिविध शरीर, (६) शरीर निर्माण के कारणभूत कर्म-परमाणु और उनकी वर्गणा। त्रिविध कृतककर्मों का रूप और उनका कार्य पूर्वोक्त कृतक कर्म तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञातृत्वरूप, कर्तृत्वरूप और भोक्तृत्वरूप। सामान्यतया 'मैं इसे जानें,' इस प्रकार के संकल्प से किया हुआ कार्य ज्ञातृत्वरूप है। 'मैं यह कार्य करूँ, इस प्रकार के संकल्प से किया गया कार्य कर्तृत्वरूप कर्म है और 'मैं इसका उपभोग करूँ, इस प्रकार के संकल्प से किया गया कार्य भोक्तृत्वरूप कर्म है। इन्द्रिय, मन, शरीर आदि करणों के माध्यम से ये तीनों कर्म होते हैं। इस दृष्टि से पूर्वोक्त तीनों प्रकार के कृतक कर्मों के अनेक अवान्तर भेद हो सकते हैं। जैसे-इन्द्रियों के द्वारा देख-सुनकर जानना, सूंघकर, चखकर या स्पर्श करके जानना, तथा मन, बुद्धि आदि के द्वारा चिन्तन-मनन करके जानना, अथवा समझना और निर्णय करना, ये और इस प्रकार के सब कार्य ज्ञातृत्व कोटि के कृतक. कर्म हैं। हाथ-पैर आदि उठाना-रखना, चलना-फिरना, बैठना-लेटना, सोना आदि क्रियाएँ अथवा वाणी के द्वारा बोलना, पढ़ना, भाषण देना, वार्तालाप करना, समझाना आदि सब कार्य कर्तृत्व कोटि के कृतक कर्म हैं। ज्ञातृत्व कर्मों से केवल जानना होता है; चलना-फिरना, भागना-दौड़ना आदि नहीं। ये कर्तृत्वकोटि कर्म हैं। ____ अब तीसरे हैं-भोक्तत्व कोटि के कर्म। जाने गये या किये गये किसी विषय के साथ तन्मय होकर उसमें दिलचस्पी लेना, रुचिपूर्वक उसे अपनाना, उसके साथ सुख-दुःख महसूस करना, अथवा प्रियता-अप्रियता का अनुभव करना या जानतें तथा करते समय हर्ष-विषाद या प्रीति-अप्रीति, रुचि- अरुचि अथवा मोह-द्रोह, ललक-घृणा आदि का अनुभव करना भोक्तृत्व. कर्म हैं। इसी प्रकार टकटकी लगाकर किसी रूप को निहारना, स्त्री आदि का काम-वासना की दृष्टि से स्पर्श करना, पूर्वोपभुक्त विषयों का रसपूर्वक स्मरण करना, चिन्तन करना, स्वादिष्ट पदार्थों का तन्मय होकर स्मरण, चिन्तन या उपभोग करना तथा मनोज्ञ, अभीष्ट एवं अनुकूल पदार्थों या विषयों व संयोगों के प्रति हर्ष और सुख की एवं अमनोज्ञ, अनिष्ट एवं प्रतिकूल पदार्थों, विषयों या संयोगों के प्रति घृणा, विषाद या दुःख की अनुभूति या प्रतीति करना भोक्तृत्व कोटि के कर्म के अन्तर्गत है। . इसी प्रकार अपने द्वारा बनाये-बनवाये, खरीदे या अधिकृत किये हुए घर, फर्नीचर, बर्तन, आभूषण, वस्त्र, उपकरण या सुख-सुविधा के साधनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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