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________________ ४७४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३). जैसे-डॉक्टर ने चर्मरोग निवारण के लिये रोगी को 'विटामिन डी'. की कैप्सूल लिख दी। रोगी ने वह दवा सेवन कर ली। उसके पश्चात् उस दवा का मनचाहा परिणाम लाना न तो डॉक्टर के वश की बात है, न ही रोगी के वश की। (किन्तु प्रायः अनुकूल) परिणाम स्वतः उद्भूत होता है। जिस प्रकार विश्व के प्रत्येक पदार्थ में तथा परमाणुओं में अपने-अपने प्रकार की एक विशिष्ट क्षमता, शक्ति या योग्यता होती है, अथवा स्वतः निर्मित हो जाती है। जो कर्म-परमाणु जीव के द्वारा आकृष्ट होते हैं, उनमें तत्काल एक विशिष्ट प्रकार की शक्ति या क्षमता निर्मित हो जाती हैं। उस क्षमता को शास्त्रीय परिभाषा में अनुभाव (अनुभाग) बन्ध कहते हैं। अनुभाव या रसानुभाव बन्ध से बद्धकर्मों में फल-प्रदान की शक्तिक्षमता स्वतः निर्मित हो जाती है। कर्मों में फलंदान की शक्ति एक-सी नहीं होती, वह राग-द्वेष की तीव्रता-मन्दता के आधार पर निर्मित होती है। इस विवेचन से कर्म में पूर्वोक्त प्रकृति निर्माणादि चतुष्प्रकारी व्यवस्था स्वतः संचालित क्यों और कैसे है ? इसे भलीभांति समझ गए होंगे। साथ ही आकृष्ट कर्मपरमाणुओं के स्वतः वर्गीकरण एवं विभाजन स्वतः होने वाली सूक्ष्म प्रक्रिया भी ज्ञात हो जाती है। कृतक कर्मों की प्रक्रिया का स्वरूप और उसकी व्यवस्था इसके पश्चात् एक और प्रक्रिया जाननी जरूरी है। शास्त्र में कर्म का त्याग करने की बात कही गई है। यदि प्रत्येक क्रिया कर्म है, तब श्वास या भोजन-पाचन आदि जैसी स्वतः संचालित क्रियाएँ भी त्याज्य हो जाएँगी, उनका त्याग शरीरधारी के लिए असंभव है। इसका समाधान करते हुए श्री जिनेन्द्रवर्णी ने कहा-“कर्म वास्तव में दो प्रकार का है-कृतक और अकृतक। 'मैं यह करूँ।' इत्याकारक संकल्पपूर्वक किया गया कर्म कृतक कहलाता है और इस प्रकार के संकल्प से निरपेक्ष जो स्वतः होता है, वह अकृतक कहा जाता है। लोक में जितने कुछ भी कार्य या कर्म हमें दिखाई देते हैं, वे सब प्रायः संकल्पपूर्वक किये गए होने से कृतक हैं। इन्हीं के त्याग का उपदेश शास्त्रों में दिया गया है, सहजरूप से होने वाले अकृतक कर्म के त्याग का नहीं।" भगवद्गीता भी सहज कर्म को त्याज्य नहीं बताती। अतः इस कृतक कर्म की प्रक्रिया जाननी आवश्यक है। इसकी प्रक्रिया का क्रम इस प्रकार है- (१) त्रिविध कृतक कर्म, (२) इनके करने के त्रिविध करण (कारण या साधन), (३) चेतनाशक्ति का योग १. कर्मवाद पृ. ३६-३७ से भावांश उद्धृत २. (क) कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से साभार पृ. ९१ (ख) “सहज कर्म कौन्तेय ! सदोषमपि न त्यजेत्।" -गीता १८/४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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