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४७८. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
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ही चारों का समवेतरूप से ग्रहण किया जाता है। किन्तु कर्म के प्रक्रियात्मक स्वरूप के सन्दर्भ में सर्वसाधारण को इन चारों का स्पष्ट अन्तर बताना अभीष्ट होने से इन चारों की पृथक्-पृथक् कार्य-प्रणाली बताना आवश्यक है।
मन का कार्य मनन करना है, बुद्धि का कार्य है-सत्य-असत्य का विवेक करना, चित्त का काम भूत-भविष्य का चिन्तन करना है और अहंकार का कार्य-अपने इष्ट विषय का उपभोग करना है, अथवा मैं-मेरा, तू-तेरा इत्यादि की मुहर-छाप लगा-लगाकर उन विषयों पर अपना स्वामित्व स्थापित करना या अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयों के प्रति अपनी अरुचि दिखलाना है।
नेत्र आदि इन्द्रियों की भांति स्थूल दृष्टि में प्रत्यक्ष न होने के कारण अन्तःकरण (मन) को शास्त्रों में अनिन्द्रिय अथवा नो-इन्द्रिय (ईषत्-इन्द्रिय) कहा गया है। किन्तु वास्तव में देखा जाए तो बहिःकरणरूप पूर्वोक्त दसों इन्द्रियों का शास्ता होने के कारण यही प्रधान इन्द्रिय है। ज्ञानकरण के द्वारा जाना गया या ग्रहण किया गया प्रत्येक विषय और कर्म-करण के द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य उपभोग करने के लिए अन्तःकरण को ही प्राप्त होता है। अन्तःकरण की प्रेरणा से ही दोनों प्रकार के बहिःकरण अपनेअपने कार्य में नियुक्त होते हैं, संलग्न होते हैं। अन्तःकरण के सक्रिय होने पर ही ये सब बहिःकरण सक्रिय हो उठते हैं और अन्तःकरण के निष्क्रिय या शान्त हो जाने पर ये भी निष्क्रिय या शान्त हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अन्तःकरण इनका स्वामी हैं, ये उसके सेवक (सेविकाएँ) हैं। अन्तःकरण के संकेत या प्रेरणा से ही ये बहिःकरण प्रायः सक्रिय-निष्क्रिय या कार्य-नियुक्त-अनियुक्त होते है। अन्तःकरण का कार्य विभाजन एवं प्रक्रिया
जिनेन्द्रवर्णी जी ने इनके कार्य एवं प्रक्रिया का विश्लेषण इस प्रकार किया है-“अन्तःकरण (शासक) की शासन व्यवस्था अत्यन्त वैज्ञानिक तथा परिपूर्ण है।......(इन बहिःकरण रूप) दसों इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन की स्वामिनी बुद्धि है। बुद्धि का स्वामी चित्त है और चित्त का स्वामी अहंकार। दूसरे प्रकार से कहें तो अहंकार राजा है, चित्त उसका (मंत्री) मित्र है और बुद्धि प्रधानमंत्री। मन इन दोनों मंत्रियों का सेक्रेटरी (सचिव) है। इन्द्रियाँ उनके अधीन विभिन्न विभागों की अधिकारिणी हैं।" १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. ९७ २. वही, पृ. ९८
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