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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४७१ उन कर्मपरमाणुओं के ग्रहण करता है और अपने साथ सम्बद्ध कर लेता है, तब वे व्यवस्थित हो जाते हैं।
आकाश मण्डल में अनेक प्रकार के परमाणु हैं। हाईड्रोजन, ऑक्सीजन, अथवा गैस एवं भाषा आदि के पचासों प्रकार के परमाणुओं के समूह (वर्गणा) हैं, वे सब परमाणु कर्म नहीं बनते। विभिन्न परमाणुओं की अपनी-अपनी योग्यता और क्षमता होती है। जिन परमाणुओं में कर्म बनने की योग्यता या क्षमता होती है, वे ही कर्म बनते हैं। उन्हें आगम की भाषा में कर्मवर्गणा के पुद्गल कहा जाता है। शास्त्र में २३ प्रकार की द्रव्यवर्गणाएँ बताई गई हैं, उनमें से जो वर्गणा कर्म के रूप में परिणत हो सकती है, वही कर्मवर्गणा कहलाती है। वह कर्मवर्गणा जीव के मन-वचन-काय की क्रिया या प्रवृत्ति अथवा चंचलता के द्वारा आकृष्ट होती है। कर्मवर्गणा के परमाणु ज्यों ही आकर्षित होकर आते हैं, त्यों ही उनकी व्यवस्था, छंटनी (Sorting) या विभाजनक्रिया स्वतः प्रारम्भ हो जाती है।' कर्म-परमाणुओं की स्वतः संचित क्रिया-प्रक्रिया चार विभागों में विभाजित
पहले हम बता चुके हैं कि 'कर्म' स्वयं नियन्ता, अनुशास्ता, या शास्ता है। उसकी शासन व्यवस्था वह स्वयं करता है। कर्म-परमाणुओं की स्वतः संचालित क्रिया-प्रक्रिया होती है। जो कर्म-परमाणु आकर्षित होकर आते हैं, उनकी पृथक-पृथक चार विभागों में विभाजन-वर्गीकरण की व्यवस्था स्वतः होती है। सर्वप्रथम जो कर्म-परमाणु जिस स्वभाव के हैं, उनकी प्रकृति के अनुरूप स्वभाव-निर्माण व्यवस्था होती है, अर्थात्-वे परमाणु क्या कार्य करेंगे? किस स्वभाव में काम करेंगे? इस प्रकार की प्रकृति व्यवस्था होती है। फिर होती है-प्रदेश व्यवस्था। अर्थात्-वे कर्मपरमाणु कितनी मात्रा में हैं, कितने जत्थे में हैं ? इसकी व्यवस्था। तत्पश्चात् उनके अनुभाव यानी रस के परिपाक की तीव्र-मन्द मात्रा के अनुसार फल देने की शक्ति के अनुरूप छंटनी होती है, इसे रस-व्यवस्था या अनुभाव-व्यवस्था कहते हैं। ये रसाणु किस प्रकार के रस का कितनी मात्रा में संवेदन करायेंगे? इसकी व्यवस्था होती है। और अन्त में उस कर्मपुद्गल की कालावधि (स्थिति) निश्चित हो जाती है। बन्ध की यह चतुष्प्रकारी योजना व्यवस्था तथा कर्मों के फलप्रदान की शक्ति के विषय में विस्तृत रूप से हम आगे चर्चा करेंगे। १. (क) कर्मवाद से भावांश उद्धृत पृ. ३१-३२, .
(ख) धवला १४/५-६, ७१/५२/५ २. (क) इसकी विस्तृत प्रक्रिया के लिए 'बन्ध' के प्रकरण देखिये।
(ख) कर्मवाद से भावांश उद्धृत पृ. ३२
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