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________________ ४७० कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) इस प्रक्रिया में गर्भित एक और प्रक्रिया इस प्रक्रिया की भी एक प्रक्रिया और समझने योग्य है। यह कर्म किस प्रकार से और कहाँ से आता और आकर किस प्रकार आत्मा से सम्बद्ध हो जाता है ? कर्मविज्ञानमर्मज्ञ इसका वैज्ञानिक दृष्टि से समाधान करते हैं - जिस प्रकार भाषा वर्गणा के परमाणु - पुद्गल समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, वे ज्यों-ज्यों बोले जाते हैं, उन्हें आज के वैज्ञानिक रेडियो, ट्रांजिस्टर, वायरलेस, टेलीविजन आदि यंत्रों से आकर्षित कर लेते हैं । उसी प्रकार समग्र आकाश-मण्डल में कर्मवर्गणा के परमाणु व्याप्त हैं । वे सारे आकाश में ठसाठस भरे हैं। एक सूत भर जगह भी रिक्त नहीं हैं। जब तक किसी जीव के द्वारा वे परमाणु स्वीकृत या गृहीत नहीं होते, तब तक वे आकाश मण्डल में अव्यवस्थितरूप से फैले हुए परमाणु मात्र होते हैं, कर्म नहीं होते। अलबत्ता, उनमें कर्म बनने की योग्यता होती है, वे कर्म-प्रायोग्य अवश्य कहलाते हैं। किन्तु जब जीव के मन में राग-द्वेषात्मक या कषायात्मक भावकर्म (भावचित्त) निर्मित हो जाता है। जीव के जिस प्रकार का रागात्मक भाव होता है, यानी भावकर्म का निर्माण वह करता है, तदनुरूप कर्म-पुद्गल-परमाणुओं को वह वहाँ बैठे-बैठे ही पार्श्ववर्ती आकाशमण्डल से खींच लेता है - ग्रहण कर लेता है। खींच लेने के बाद वे कर्म-पुद्गल परमाणु जीव को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लेते हैं यानी बंधन में बद्ध कर लेते हैं, एक क्षण पहले जो कर्मपरमाणु आकाश में फैले हुए थे, दूसरे क्षण वे ही कर्म-परमाणु आत्मा से सम्बद्ध हो गए। आशय यह है कि जीव अपने स्थान में था और कर्म - परमाणु अपने स्थान में, किन्तु ज्यों ही जीव में राग-द्वेषात्मक भावकर्म उदित हुआ कि वे आस-पास के आकाशमण्डल- व्याप्त कर्मपुद्गल आकर्षित होकर जीव के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चुके । यानी वे कर्मपुद्गल जीव के भावकर्म कहें, या आस्रव कहें या भावचित्त कहें, उसके द्वारा वे द्रव्यकर्म दान लिये जाते है, तब वे जीव को बन्धन बद्ध कर लेते हैं । ' यह ध्यान रहे कि जीव के द्वारा ग्रहण या स्वीकार किये जाने से पूर्व वे कर्म-प्रायोग्य परमाणु व्यवस्थित नहीं होते, अस्त-व्यस्त होते हैं; जीव जब १. (क) पंचास्तिकाय गा. ६४ (ख) तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/२/५१ (ग) कर्मवाद से भावांश पृ. ३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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