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४७२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
यहाँ तो इतना ही कहना है कर्म की यह स्वतः संचालित प्रक्रिया ही कर्म का प्रक्रियात्मक रूप है।
कर्मों की स्वतः संचालित प्रक्रिया व्यवस्था कैसे और किस रूप में ?
इस प्रक्रिया के सम्बन्ध में एक प्रश्न और है, कि चारों भागों में विभाजित होने की कर्मों की यह स्वतः संचालित प्रक्रिया कैसे सम्पन्न हो जाती है? इसका संतोषजनक समाधान कर्मवाद ग्रन्थ में इस प्रकार दिया है
.. हमारे शरीर में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ हैं। शरीर के कुछ हिस्से ऐसे हैं जो नाड़ी - संस्थान द्वारा संचालित हैं । हमारी बहुत सारी क्रियाएँ उन्हीं से संचालित हैं। मैं हाथ हिला रहा हूँ, यह स्वाभाविक..... स्वतः संचालित क्रिया नहीं है, किन्तु नाड़ियों की उत्तेजना से होने वाली किया है। मैं श्वास ले रहा हूँ, यह किसी के द्वारा नियंत्रित क्रिया नहीं है, यह स्वतः संचालित क्रिया है । हमारी अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती हैं और अनेक क्रियाएँ प्रेरणा - जनित होती हैं। ये दोनों प्रकार की क्रियाएँ हमारे शरीर में हो रही हैं। "
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" हम भोजन करते हैं। भोजन करने के बाद हम उस क्रिया से निवृत्त हो जाते हैं। आगे की सारी क्रियाएँ अपने आप...... स्वतः संचालित होती हैं। हमने खाया, (यानी भोजन का कौर कर पेट में डाला) । खाने के साथ पचाने वाला रस स्वतः उसके साथ मिल जाता है । चबाया फिर वह (खाया हुआ आहार) नीचे उतरा। पाचन हुआ । छना। रस की क्रिया बनी। रस बना। सारे शरीर में फैला (यथायोग्य मात्रा में पहुँचा)। जो सार-सार था वह फैला। (रस से) रक्त (आदि सप्त साधु) के रूप में बना । क्रियाएँ (विभिन्न विभाग की स्वतः) संचालित हुई। जो असार था, वह बड़ी आंत में गया। ( मल, मूत्र, स्वेद आदि के रूप में) उत्सर्ग की क्रिया सम्पन्न हुई। ये सारी क्रियाएँ अपने आप होती चली गई। आपको पता ही नहीं चला। न आपने उसके लिए कोई प्रयत्न किया। फिर भी वे क्रियाएँ सम्पन्न हो गई।”
"क्या आप कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि अब भोजन को पचाना है, रस बनाना है, रक्त बनाना है, मांस बनाना है? नहीं सोचते, कोई प्रयत्न नहीं करते; फिर भी ये सारे कार्य सम्पन्न होते हैं। जहाँ जो होना होता है, वह स्वतः होता चला जाता है। जो शक्ति मिलनी है, वह मिल जाती है। जो ऊर्जा में बदलना है, वह ऊर्जा में बदल जाता है।”
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१. कर्मवाद से साभार उद्धृत पृ. ३४-३५
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