SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . भावकर्म-द्रव्यकर्म की प्रक्रिया भी कर्म का प्रक्रियात्मक रूप ___कर्म की एक प्रक्रिया यह है-भावकर्म आम्रवरूप है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच आस्रव हैं। आत्मा में इन पांचों आस्रवों अर्थात्-भावकर्म के पांच स्रोतों से भावकर्म का तीव्र-मन्द-मध्यम रूप से सम्बन्ध होता है, तो वे भाव-कर्म अपने संवादि द्रव्यकर्मों को आकर्षित कर लेते हैं। यानी भावकर्म का ठीक संवादी द्रव्यकर्म होता है और द्रव्यकर्म शरीररूप होता है, जिसके संवादी होते हैं-औदारिक और तेजस शरीर। आशय यह है कि एक जैसा होगा, दूसरा भी वैसा ही होगा और दूसरा जैसा होगा, तीसरा भी वैसा ही होगा।' जैविक और पौद्गलिक रासायनिक प्रक्रियाओं का योग ही कर्म का प्रक्रियात्मक रूप यह निश्चित है-आत्मा भावकर्म के बिना द्रव्यकर्मों-कर्मपुद्गलों को आकर्षित नहीं कर सकती। भावकर्म से फिर द्रव्यकर्मों का आकर्षण होता है। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो भावकर्म जीव (आत्मा) में होने वाली रासायनिक प्रक्रिया है, इसे हम जैविक-रासायनिक प्रक्रिया कह सकते हैं और द्रव्यकर्म सूक्ष्म (कार्मण) शरीर की रासायनिक प्रक्रिया है, इसे पौद्गलिक रासायनिक प्रक्रिया कह सकते हैं। इन दोनों-जैविक और पौद्गलिक रासायनिक प्रक्रियाओं में परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है, ये दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। इन दोनों में सम्बन्ध तभी स्थापित होता है जब जैविक रासायनिक प्रक्रिया के साथ सूक्ष्म शरीर की (पौद्गलिक) रासायनिक प्रक्रिया का योग हो, साथ ही सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया के साथ जैविक रासायनिक प्रक्रिया का योग हो। आकाशीय ग्रह-नक्षादि का भूमण्डल आदि पर प्रभाव वर्तमान वैज्ञानिकों ने भी माना है कि चन्द्रमा, सूर्य तथा आकाशीय ग्रह-नक्षत्र इस पृथ्वी पर, पृथ्वी पर रहने वाले जीवों, विशेषतः मनुष्यों पर भी प्रभाव डालते हैं। ज्योतिष शास्त्र ने तो पहले से ही यह सिद्ध कर दिया है। समग्र ज्योतिषशास्त्र का गणित और फलित ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव पर आधारित है। ज्योतिषशास्त्र बता देता है कि अमुक ग्रह नक्षत्र का योग हो तो उसका प्रभाव अमुक प्रकार का पड़ता है। कर्म की एक प्रक्रियात्मक प्रणाली ____ संसार का प्रत्येक जीव प्रभावयुक्त है। अप्रभावित कोई नहीं है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में संक्रमण एवं प्रभाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इसी १. कर्मवाद से, (भावांश) पृ. २५ २. वही. पृ. २८ (भावांश) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy