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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४६७
रहते हैं। इनका अस्तित्व बिल्कुल नहीं बदलता; केवल परिधियाँ बदलती हैं; केन्द्र नहीं बदलता। परिधि में ही समस्त परिवर्तन होते हैं। कर्म का निमित्त मिलने पर अमूर्त आत्मा मूर्त-सम प्रयुक्त होने लगता है, चेतन आत्मा अचेतन रूप में-पौद्गलिक रूप में व्यवहृत होने लगती है।' निश्चयदृष्टि से अमूर्त आत्मा, वर्तमान में मूर्तवत् बनी हुई है ।
यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा अमूर्त है, चेतनामय है, परन्तु वर्तमान में तो संसारी आत्माएँ मूर्त हैं। अमूर्त बनने का लक्ष्य अवश्य है, परन्तु वह लक्ष्य तभी सिद्ध होगा, जब समस्त कर्मों का अन्त आ जाएगा, कर्मों के साथ जो सम्बन्ध है वह सर्वथा टूट जाएगा। भावकर्म के साथ-साथ द्रव्यकर्म भी समाप्त हो जाएँगे। तब आत्मा समस्त आवरणों, कर्मों से सर्वथा मुक्त होगा। चैतन्य चन्द्र पूर्ण निष्कलंक और शुद्ध अखण्ड ज्योतिर्मय हो जाएगा। जिस दिन आत्मा पूर्ण अमूर्त हो जाएगा, मूर्त सर्वथा छूट जाएगा, अंश-मात्र भी नहीं रहेगा। केवल अमूर्त शेष रहेगा। तब आत्मा निरंजन, निर्लेप, निराकार, अनन्तचतुष्टय-सम्पन्न, शुद्ध निष्कलंक हो जाएगी। वर्तमान में भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों आत्मा के साथ लिपटे हुए हैं
परन्तु वर्तमान में अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त भी जुड़ा हुआ है। आत्मा अखण्ड चेतनावान् है, किन्तु वर्तमान में उस पर अचेतन द्रव्य छाया हुआ है। आत्मा के साथ भावकर्म का इस समय संयोग है। भावकर्म आत्मा का रांगादिमय परिणामरूप है। दूसरा द्रव्यकर्म है, जो भावकर्म का शारीरिक आकार धारण करने वाला-भावकर्म का संवादि कार्य करने वाला है। इसे पौद्गलिक कर्म भी कह सकते हैं। भावकर्म को भावचित्त और द्रव्यकर्म को पौद्गलिक चित्त भी समझा जा सकता है। द्रव्यकर्म में भावकर्म प्रतिबिम्बित होता है; यानी, जैसा भावकर्म निर्मित होता है, वैसा ही द्रव्यकर्म को-कर्मपुद्गलों का निर्माण होता जाता है। टेपरिकार्डर में भरी जाती हुई आवाज की तरह, भावकर्म के संस्कार द्रव्यकर्म में भर जाते हैं, अंकित हो जाते हैं। समझना यह है कि भावकर्म और द्रव्यकर्म के आत्मा में आने, प्रविष्ट होने अथवा आत्मा से सम्बद्ध होने की प्रक्रिया (Process) क्या है ? इस प्रक्रिया को जान लेना ही कर्म के प्रक्रियात्मक रूप को जानना है।
१. कर्मवाद से भावांश पृ. २३ २. वही, भावांश पृ. २३-२४ ३. कर्मवाद से भावांश पृ. २४.
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