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________________ ४६६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट स्वरूप (३) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश द्रव्यों को अरूपी (अमूत्त) कहा गया है, फिर भी ये मूर्त पदार्थों को अवगाह, गति, स्थिति आदि में सहायक बनते है। इसलिए उपकारी हैं। ये आकाशादि द्रव्य अचेतन होते हुए भी इन अमूर्त द्रव्यों का मूर्त के प्रति उपकार' है और मूर्त के द्वारा अमूर्त द्रव्यों का परिणमन पर्याय-परिवर्तन भी होता है। इसी प्रकार अमूर्त आत्मा (जीव) का भी मूर्त कर्मपुद्गलों के प्रति उपकार है। दोनों एक-दूसरे से उपकृत होते हैं। दोनों के उपादान पृथक्-पृथक्, दोनों में संयोग सम्बन्धकृत परिवर्तन कर्मपुद्गलों की आत्मा के साथ तदात्मता-एकात्मता तो तीन काल में नहीं हो सकती। तादात्म्य होने पर कर्म और आत्मा दो नहीं रह सकते, एक हो जायेंगे। इसलिए सिद्धान्त यह है कि आत्मा के अपने स्वभाव, गुण और उपादान अलग हैं और कर्मपुद्गल के उपादान, स्वभाव और गुण अलग हैं। आत्मा के मुख्य चार उपादान है-ज्ञान, दर्शन आत्म-सुख (आनन्द) और शक्ति। ये आत्मा के मौलिक गुण एवं उपादान हैं। इनमें कभी परिवर्तन नहीं आता। कर्म-पौद्गलिक पदार्थ है। उसके मुख्य उपादान चार हैंस्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण। उसके उपादान एवं गुण, स्वभाव में आत्मा कदापि परिवर्तन नहीं ला सकती और न ही आत्मा के गुण और उपादान में 'कर्म' कोई परिवर्तन ला सकते हैं। दोनों का उपादान अपना-अपना होगा। ये एक-दूसरे के सहायक बन सकते हैं। अतः पुद्गलकर्म, पुद्गल ही रहते है। आत्मा, आत्मा ही। दोनों का संयोग सम्बन्ध हो सकता है। संयोग-सम्बन्धकृत परिवर्तन दोनों में हो सकता है। इन दोनों का उपादान अपना-अपना रहेगा, केवल निमित्त बदलेंगे। अर्थात्-आत्मा के उपादानों के किंचित् परिवर्तन में कर्म निमित्त बन सकते हैं और कर्मों के उपादानों के यत्किंचित् बदलने में आत्मा निमित्त बन सकती है। एक-दूसरे के उपादानों की ये दोनों जरा भी क्षति नहीं कर सकते। निमित्त की सीमा में दोनों एक-दूसरे से उपकृत एवं प्रभावित होते हैं तत्पश्चात् हमें यह सोचना है कि आत्मा और कर्म एक-दूसरे पर क्या प्रभाव डालते हैं ? ये एक-दूसरे पर क्या उपकार करते हैं ? इसका समाधान यही है कि ये दोनों निमित्त की सीमा में जितना कुछ हो सकता है, करते हैं; किन्तु उपादानगत या अस्तित्वगत कुछ भी नहीं करते। अपने-अपने अस्तित्व की सीमा में आकाशादि द्रव्यों की तरह ये दोनों भी १. कर्मवाद से भावाश पृ. २२ २. कर्मवाद से भावांश उद्धृत, पृ. २२-२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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