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________________ ४१६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) बनाकर सांसारिक क्षणिक सुख - दुःख के झूले में झुलाता रहता है। दुःखबीज सुख के मोह में मनुष्य ज्ञानी महापुरुषों की बात को नहीं मानता। राजवार्तिक में कहा गया है - सुख - दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलाधान हेतु है। ' संसारी जीवों का जन्म और मरण भी आयुष्यकर्म के अधीन है। उसके जन्म-मरण की डोरी आयुष्यकर्म से बंधी हुई है। वह अपने ही कर्मानुसार जन्म लेता है, स्वकर्मानुसार ही मरता है। आयुष्यकर्म जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक न तो उसकी मृत्यु हो सकती है, न ही उसका नया जन्म। दोनों ही कर्म के परवश है। आयुष्यकर्म की तुलना कर्ममर्मज्ञों ने एक बंदी से की है, जिसके पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हैं। पहले ही सांसारिक जीव कर्मों की गिरफ्त में कैद तो है ही। फिर उसके पैरों में आयुष्यकर्म बेड़ी डालकर उसे सर्वथा परतंत्र बना देता है। जीव का शरीर भी आत्माधीन नहीं है, वह आत्मा की अपनी रचना नहीं है। आत्मा अपना मनचाहा शरीर नहीं बना सकती। शरीर का सृजन तथा शरीर से सम्बन्धित इन्द्रियाँ, अंगोपांग, मन तथा उसकी आकृति, संस्थान, मजबूती तथा शरीर से संलग्न इन्द्रिय विषय तथा मन से सम्बद्ध यश-अपयश, सौभाग्य-दुर्भाग्य आदि सब की रचना नामकर्म के अधीन है। नामकर्म को एक चित्रकार की उपमा दी गई है। चित्रकार नाना चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म संसार में स्थित ८४ लाख प्रकार के जीव-योनिगत जीवों के विविध चित्र-विचित्र शरीरों और उनसे सम्बद्ध अंगोपांगों की रचना करता है। वही मस्तिष्क, मन, बुद्धि, चित्त तथा हाथ, पैर, पेट, जीभ, कान, नाक आदि अंगोपांगों का निर्माण उस उस जीव के कर्मानुसार करता है। धवला में कहा गया है - नामकर्मोदय की वशवर्तिता से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। तथा कर्मों की विचित्रता से ही जीव (आत्म) प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बन्धन होता है । द्रव्यसंग्रह (टीका) में कहा गया है - जीवप्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं । तत्त्वार्थसार में बताया गया है कि ऊर्ध्वगमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए। स्याद्वादमंजरी में भी १. राजवार्तिक ५ / २४/९/४८८/२१ २. (क) देखें, गो. कर्मकाण्ड; तथा कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) (ख) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग (विवेचक - पं. सुखलाल जी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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