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कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४१७
इसी तथ्य का समर्थन है-स्व-ज्ञानावरण के क्षयोपशम-विशेष के वश ज्ञान की निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है।'
नामकर्म इतना शक्तिशाली है कि कोई भी जीव उसकी रचना का प्रतिवाद नहीं कर सकता। उसके निर्माण के अधीन परतंत्र होकर उसे शरीररूपी कारागार में रहना पड़ता है। अतः जीवों के शरीर और उससे सम्बद्ध सारी रचना नामकर्म के अधीन है। कोई भी जीव इस विषय में स्वतंत्र नहीं है।
एक और कर्म है-गोत्रकर्म। उसके साथ मनुष्य की सम्माननीयताअसम्माननीयता जुड़ी हुई है। गोत्रकर्म दो प्रकार का है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र। गोत्र का अर्थ किसी वर्ण, कौम या जाति-ज्ञाति आदि से नहीं है उसका अर्थ है-लोकदृष्टि में जीव के अच्छे-बुरे व्यवहार, आचरण और कार्य के अनुसार उच्च और नीच-श्रेष्ठ और निकृष्ट शब्दों से पुकारा जाना। जो जीव अच्छे कार्य, व्यवहार या आचरण करता है, वह अभिजात कहलाता है और निन्द्य, घृणित और नीच कार्य करता है, वह अनभिजात कहलाता है, यही उच्च-नीच गोत्रकर्म का आशय है। गोत्रकर्म को कुम्भकार से उपमित किया गया है। कुम्भकार बुहमूल्य घट आदि का भी निर्माण करता है, जिसे सभी खरीदना चाहते हैं और ऐसा रद्दी घड़ा आदि भी बनाता है जिसे कोई लेना पंसद नहीं करता है। इसी प्रकार गोत्रकर्म के अधीन होकर मनुष्य की उच्चता-नीचता, श्रेष्ठता-निकृष्टता द्योतित होती है। यों जीव (आत्मा) गोत्रकर्म के अधीन रहकर अपनी स्वतंत्रता को खो देता है। कर्म जीव की स्वाभाविक शक्तियों को कुण्ठित एवं विकृत बनाते हैं।
इस प्रकार आठों ही कर्म आत्मा के साथ बँधकर उसकी स्वाभाविक ज्ञानादि शक्तियों को आवृत, कुण्ठित एवं विकृत कर डालते हैं। ये जीव को उसी प्रकार मोह से उन्मत्त करके परतंत्र कर देते हैं, जिस प्रकार मद्य मदोन्मत्त करके पीने वाले को पराधीन बना देता है। 'समयसार' में कहा गया है-"जिस प्रकार मैल श्वेत वस्त्र को मलिन बना देता है, उसी प्रकार
१. (क) धवला १/१/१/३३/२४२-८, तथा २३४-३
(ख) द्रव्यसंग्रह टीका १४/४४/१० (ग) तत्त्वार्थसार ८/३३
(घ) स्याद्वादमंजरी १७/२३८/६ २. (क) कर्मवाद पृ. १२३
(ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. २१ की व्याख्या
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