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________________ कर्म का परतत्रीकारक स्वरूप ४१५ ये ज्ञानावरणीयादि चारों घाती कर्म हैं, जो आत्मा के स्वभाव कीआत्मगुणों की घात करते हैं। जीव के सुख-दुःख, जन्म-मरण, शरीरादि तथा यश-अपयश कर्माधीन हैं सांसारिक प्राणी के जीवन के दो अभिन्न साथी हैं-सुख और दुःख। ये दोनों शरीर के सर्वथा अन्त होने या जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त होने तक जीव के साथ-साथ रहते हैं, अलग नहीं होते। ऐसा नहीं होता कि सदा सुख ही सुख रहे या सदैव दुःख ही दुःख रहे। सुख और दुःख का सम्बन्ध वेदन से है। जीव अगर किसी सजीव या निर्जीव पदार्थ को लेकर सुख का अनुभव वेिदन) करता है तो सुख है, दुःख का वेदन करता है तो दुःख है। ये सुख और दुःख के वेदन भी कर्माधीन हैं। वेदनीय कर्म से ये दोनों इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि वह वास्तविक आत्मिक सुख (आनन्द) का भान नहीं होने देता। इसके प्रभाव से जीव सांसारिक सुख-दुःख को सुख-दुःख अथवा वस्तुनिष्ठ दुःख-सुख को दुःख-सुख समझने या महसूस करने लगता है। ___ वेदनीय कर्म की तुलना कर्मग्रन्थ में मधुलिप्त तलवार से की गई है। एक तीखी धार वाली तलवार पर शहद का लेप लगा हुआ है। उस मधु के स्वाद के लोभ में आकर एक व्यक्ति उस तलवार पर जीभ लगा कर शहद चाटता है। परन्तु उस प्रक्रिया से उसकी जीभ कटे बिना नहीं रह सकती। क्योंकि तलवार इतनी तीखी है कि जीभ से उस पर लगा हुआ मधु चाटते ही तलवार उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगी। मधु की मधुरता का स्वाद और जीभ का कटना, दोनों एक साथ सम्भव हैं। - हितैषी पुरुष उसे इस मधु का लोभ छोड़ने को कहते हैं, किन्तु वह कहता है-एक बूंद मधु और चाट लूँ। एक-एक बूंद मधु के लिए वह तरस रहा है। दुःख और विपत्ति की संभावना होते हुए भी वह इसे छोड़ना नहीं चाहता। - इसी प्रकार का वेदनीय कर्म है जो सुख और दुःख दोनों का घटक है। मनुष्य क्षणिक सुख के लोभ में दुःखबीज सुख को अपनाता है। जानता है कि इस विषयसुख या वस्तुनिष्ठ, क्षणिक सुख के पीछे जन्म-मरणादि के अगणित दुःखों का अम्बार लगा हुआ है, फिर भी वह मोहान्ध होकर छोड़ता नहीं। ..अध्यात्मवेत्ता आचार्य कहते हैं कि जो सुख भोगा जा रहा है, वह दुःख का बीज है। दुःखद वेदनीय कर्म का बीजारोपण सुख नहीं, दुःख को ही लाने वाला है। इसलिए यह सुखासक्ति घोर दुःखजनक असातावेदनीय । कर्मों को उत्पन्न करती है। इस प्रकार वेदनीय कर्म जीव को पराधीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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