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________________ ४१४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . . के नशे में चूर होकर न तो किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निश्चय कर सकता है, न ही उसकी चेष्टा या व्यवहार सही होता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि, समझ, आचरण या व्यवहार सबके सब विपरीत हो जाते है। इसी प्रकार मोहनीयकर्मरूपी मद्य में मोह-मूढ़ होकर व्यक्ति न तो अपनी आत्मा के स्वभाव को यथार्थरूप से समझता-मानता है, और न ही तदनुरूप, स्वरूपरमणरूप, निश्चय तथा सम्यक्चारित्ररूप व्यवहार चारित्र का पालन कर पाता है। प्रायः छद्मस्थ जीव मोहमद्य से मूर्च्छित है। उसकी चेतना प्रमत्त है, मोहकर्म-परतंत्र है। मोहनीय कर्म उसे ऐसा.परतंत्र बना डालता है कि वह सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र इन दोनों के या दोनों में से सम्यक्चारित्र के आचरण में मूद, परतंत्र एवं विस्मृत हो जाता ___ आत्मा की सबसे बड़ी विशेषता है-अनन्तशक्ति सम्पन्नता। वह शक्ति क्रमशः पाँच भागों में विभक्त है-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (पराक्रम)। संसारी छद्मस्थ जीव की इस विशिष्ट असीम आत्मशक्ति को अन्तरायकर्म स्फुरित एवं प्रस्फुटित-प्रकटित नहीं होने देता। यह कर्म प्रत्येक कार्य में विघ्न उपस्थित करता है। प्राणिवध, ज्ञान का निषेध करना, धर्म-कार्यों में तप, सेवा तथा देव, गुरु, धर्म आदि की भक्ति में बाधा उपस्थित करना अन्तरायकर्म का कार्य है। आत्मा की इस असीम शक्ति में अन्तरायकर्म ऐसा बाधक बन जाता है कि वह इसे दानादि कार्यों में व्याप्त नहीं होने देता। वह मानसिक बाधा उपस्थित करता है। इसके कारण जीव शक्तिहीन एवं पराधीन बन जाता है। अन्तरायकर्म इतना प्रबल आत्मगुणघातक है कि वह चिरकाल तक आध्यात्मिक दानादि कार्यों को करने में शक्ति लगने ही नहीं देता। इसीलिए कर्मशास्त्रियों ने अन्तरायकर्म की तुलना राजा के भण्डारी से की है। राजा द्वारा प्रसन्न होकर एक लाख रुपये देने के आदेश का रुक्का लिख देने पर और भण्डारी (कोषाध्यक्ष) को रुक्का दिखाने पर भी उसे रुपये देने में आनाकानी करता है, टरकाता रहता है। इसी प्रकार आत्मारूपी या परमात्मारूपी राजा का अमुक आध्यात्मिक आदेश-निर्देश होने पर भी अन्तरायकर्म रूपी भण्डारी उस शक्ति के प्रकटीकरण में बाधा उपस्थित करता है। इस प्रकार अन्तरायकर्म आत्मा की शक्ति को कुण्ठित करके परतंत्र बना देता है। यह दिनों, महीनों या वर्षों तक कार्य में व्यवधान उत्पन्न कर देता है।' १. (क) वही, गो. कर्मकाण्ड गा. २१ की व्याख्या (ख) देखें- कर्मवाद पृ. १२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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