SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४१३ इसी प्रकार संसारस्य आत्मा की दर्शनशक्ति भी स्वतंत्र नहीं है, वह भी दर्शनावरणीय कर्म से आवृत है। आत्मा की दर्शनशक्ति किस प्रकार आवृत है? इसे भी गोम्मटसार में एक रूपक द्वारा समझाया गया है- 'एक व्यक्ति राजा से साक्षात्कार करना चाहता था। राजसभा के द्वार पर आकर जब वह राजा से मिलने के लिए सीधा प्रवेश करने लगा तभी द्वारपाल ने उसे रोक लिया। इसी प्रकार संसारी छद्मस्थ आत्मा के दर्शन स्वभाव को . दर्शनावरणीय कर्मरूपी द्वारपाल रोके हुए है। अतः दर्शन आवृत होने के कारण वह भी परतंत्र है- कर्माधीन है । " संसारी छद्मस्थ आत्मा की सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा इन दोनों की शक्ति भी अवरुद्ध है, कुण्ठित है। मोहनीय कर्म इस आत्मा के साथ ऐसा लगा हुआ है कि उसने मनुष्य की सम्यग्दृष्टि और सम्यक् चारित्र दोनों को विपर्यस्त एवं विकृत कर दिया है। आत्मा को परतंत्र बनाकर दुःखी करने में सबसे प्रमुख स्थान मोहनीय कर्म का है। मोहनीय कर्म के कारण जीव का ज्ञान अज्ञानरूप बन जाता है, जीव अपने स्वरूप में स्थित न होकर क्रोधादि विकृत अवस्था को प्राप्त करता है। दर्शनमोहनीय के कारण देव, गुरु, धर्म, शास्त्र तथा तत्त्वों के विषय में सम्यक् श्रद्धा से वंचित रहता है। मोहनीय कर्म नै घातिकर्मबद्ध संसारी जीव को इतना परतंत्र बना दिया कि इसे अपने स्वरूप का तथा स्वरूप की प्राप्ति का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से यथार्थ भान नहीं हो पाता। इस कर्म के कारण न तो जीव आत्मदर्शन कर पाता है और न ही कल्याण मार्ग में लगता है। कषायाविष्ट तथा रागद्वेषाविष्ट होकर वह बार-बार मोह-मूर्च्छित होकर या दृष्टिविपर्यास के कारण आत्मा से सम्बन्धित प्रत्येक गुण एवं स्वभाव को विपरीतरूप में जानता-मानता है, अथवा दृष्टि सम्यक् हो तो भी रागद्वेष कषायादि के आवेग के कारण उसकी चारित्र - पालन की शक्ति अवरुद्ध, कुण्ठित या विकृत हो जाती है। यह मोहनीय कर्म है, जो आत्मा को दीर्घकाल तक परतंत्र बनाये रखता है। ‘गोम्मटसार' में इसे मद्य-पान की उपमा देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार मदिरा पिया हुआ मनुष्य अपना भान भूल जाता है। वह मद्य १. (क) देखिये गोम्मटसार की यह गाथा और उसकी व्याख्या "पड- पडिहारसि-मज्जाहलि-चित्त- कुलाल- भंडयारीणं ।” जह एदेसिं भावा, तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥ २१ ॥ - गोम्मटसार कर्मकाण्ड पृ. ९ (परमश्रुत प्रभावकमंडल द्वारा प्रकाशित) (ख) देखें - कर्मवाद पृ. १२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy