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________________ ३८० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) समान नैयायिक और वैशेषिक भी रागादि दोषों से संस्कार की तथा संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार की उत्पत्ति परम्परा बीजांकुरवत् अनादि मानते हैं। भावकर्म ने द्रव्यकर्म को उत्पन्न किया, इसका अर्थ यह नहीं है कि भावकर्म ने पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न किया, किन्तु उसका भावार्थ जैनकर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों के अनुसार यही है कि भावकर्म के निमित्त से कर्मयोग्य पुद्गल में ऐसा संस्कार निर्मित हुआ, जिसके फलस्वरूप वह पुद्गल कर्मरूप में परिणत हुआ। अतः नैयायिकों के संस्कार एवं वैशेषिकों के अदृष्ट में तथा जैनसम्मत द्रव्यकर्म में कोई विशेष अन्तर. नहीं रह जाता। योग और साख्यदर्शन में द्रव्यकर्म-भावकर्म के साथ सामजस्य योगदर्शन की कर्म-विषयक मान्यता भी लगभग जैनदर्शन जैसी ही है। योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, ये पाँच क्लेश हैं। इन पाँच क्लेशों से क्लिष्ट चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है, फिर उससे धर्म-अधर्म-रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। योगदर्शन-सम्मत क्लेशों को जैनदर्शनसम्मत मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषायरूप भावकर्म, चित्तवृत्तिप्रवृत्ति को मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति (योग) एवं संस्कार को द्रव्यकर्म माना जा सकता है। योग-दर्शन में संस्कार को वासना, कर्माशय और अपूर्व भी कहा गया है। किन्तु जैनदर्शन और योगदर्शन की प्रक्रिया में मतभेद है। योग-दर्शन में क्लेश, क्लिष्ट वृत्ति और संस्कार इन सबका सम्बन्ध आत्मा के साथ न मान कर चित्त अथवा अन्तःकरण के साथ माना गया है। और अन्तःकरण 'प्रकृति' का विकार (परिणाम) है, सांख्यदर्शन की कर्म-विषयक मान्यता भी योगदर्शन के समान है। सांख्यदर्शन ने पुरुष (आत्मा) को कूटस्थ और अपरिणामी मानकर परिणाम जड़ प्रकृति में ही माना। जबकि जैनदर्शन ने आत्मा को परिणामी-नित्य मानकर अज्ञान, मोह, कषाय आदि आत्मा में ही माने, प्रकृति के धर्म नहीं। इस कारण सांख्य को यह मानना पड़ा कि बन्ध और मोक्ष पुरुष (आत्मा) का नहीं, प्रकृति का होता है। इस मतभेद को १. (क) आत्ममीमांसा से भावार्थ पृ. ९९-१००-१०१ (ख) न्यायभाष्य १/१/२ (ग) न्यायसूत्र ४/१/३-४, १/१/१७ (घ) न्यायमंजरी पृ. ४७१, ४७२ (ङ) प्रशस्तपाद भाष्य ४७, ६३७, ६४३ (च) न्यायमंजरी पृ. ५१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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