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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३७९
वेदान्त दर्शन में आवरण और विक्षेप के रूप में द्रव्य-भावकर्म ___जैनदर्शन के प्रखर पुरस्कर्ता आचार्य विद्यानन्दी ने 'अष्टसहस्री' में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भावकर्म को 'दोष' के रूप में प्रतिपादित किया है। द्रव्यकर्म को 'आवरण' इसलिए कहा गया है कि वह आत्मशक्तियों के प्रकटीकरण को रोकता है, इसी प्रकार भावकर्म तो स्वयं आत्मा की विभावदशा है इसलिए वह अपने आप में दोष' है। जिस प्रकार जैनदर्शन में कर्म के आवरण और दोष, ये दो कार्य बताए गए हैं, उसी प्रकार वेदान्त दर्शन में भी आवरण और विक्षेप इन दोनों को 'माया' के दो कार्य माने गए हैं। अतः ये ही दो कार्य प्रकारान्तर से द्रव्यकर्म और भावकर्म के नाम से कर्म के दो रूप हैं।' नैयायिक-वैशेषिकों की दृष्टि में द्रव्यकर्म और भावकर्म
वैसे तो नैयायिक-वैशेषिकों के ग्रन्थों में द्रव्यकर्न और भावकर्म के नाम से स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता; किन्तु उनके दर्शन का अनुशीलन करने से यह स्पष्टतः प्रतीत हो जाता है कि दोनों ही दर्शन प्रकारान्तर से कर्म के इन दोनों रूपों से सहमत हैं। जैनकर्म-विज्ञान में द्रव्यकर्म या पौद्गलिककर्म का जो स्थान है, उसी का नैयायिकों ने प्रवृत्तिजन्य धर्माधर्म संस्कार और वैशेषिकों ने 'अदृष्ट' के नाम से उल्लेख किया है। इसी प्रकार नैयायिकों ने जिन राग, द्वेष और मोह, इन तीन दोषों का उल्लेख किया है, जैनदर्शन ने उन्हीं तीन दोषों को कर्म के बीज मानकर 'भावकर्म के नाम से अभिहित किया है। नैयायिकसम्मत 'संस्कार' और जैनदर्शन-सम्मत 'पुद्गल' में विशेष अन्तर नहीं है। न्यायदर्शन के मतानुसार गुण और गुणी में भेद होने से वे आत्मा को ही चेतन मानते हैं, संस्कार को नहीं, क्योंकि संस्कार आत्मारूपी गुणी का एक गुण होने से वह अचेतन है। चैतन्य का संस्कार के साथ समवाय सम्बन्ध नहीं है। जैन-सम्मत पुद्गलकर्मद्रव्यकर्म भी अचेतन है। इसलिए संस्कार कहें या द्रव्यकर्म दोनों एक-से प्रतीत होते हैं। इतना अवश्य है कि नैयायिक संस्कार को गुण कहते हैं, जबकि जैन द्रव्यकर्म को पुद्गल द्रव्य कहते हैं। गहराई से सोचें तो यह अन्तर भी तुच्छ मालूम होगा। जैनदर्शन द्रव्यकर्म की उत्पत्ति भावकर्म से और भावकर्म की उत्पत्ति (विशेष परिणति) द्रव्यकर्म से मानता है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन भी संस्कार की उत्पत्ति मानते हैं। और जैनों द्वारा मान्य भावकर्म और द्रव्यकर्म की पूर्व-पृष्ठों में वर्णित अनादि परम्परा के १. (क) अष्टसहस्री पृ. ५१, उद्धृत स्टडीज इन जैन फिलॉसाफी पृ. २२७ __(ख) जैन कर्म सिद्धान्त ः एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. १३
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