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कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३८१
नजरअंदाज करके संसार और मोक्ष की कर्म सम्बन्धी प्रक्रिया पर विचार किया जाए तो दोनों में अतीव समानता प्रतीत होती है।
जैनदर्शन में जैसे राग-द्वेष-मोहादि भाव जनित भावकर्म के कारण आत्मा के साथ अनादि काल से पौद्गलिक कार्मण शरीर-द्रव्यकर्म का सम्बन्ध बीजांकुरवत् तथा एक की उत्पत्ति में दूसरा कारणरूपेण विद्यमान होते हए, दोनों का संसर्ग आत्मा के साथ अनादि माना गया है, इसी प्रकार सांख्यदर्शन भी लिंग शरीर को अनादिकाल से पुरुष के संसर्ग में मानता है। तथा लिंग शरीर की उत्पत्ति भी जैनसम्मत कार्मण शरीरवत् राग-द्वेष-मोह जैसे भावों से मानता है। इस प्रकार रागादि भाव (भावकम) और लिंग शरीर में भी बीजांकुरवत् कार्य-कारण भाव माना है। साथ ही, जैसे जैनदर्शन कार्मण (सूक्ष्म) शरीर को स्थूल (औदारिक) शरीर से पृथक् मानता है, वैसे सांख्य भी लिंग (सूक्ष्म) शरीर को स्थूल शरीर से भिन्न मानते हैं। जैनमतानुसार स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर पौद्गलिक हैं, सांख्यमतानुसार उक्त दोनों शरीर प्रकृतिजन्य हैं। पौद्गलिक मानकर जैनदर्शन ने दोनों की वर्गणाएँ पृथक्-पृथक् मानी हैं, जबकि सांख्य भी एक को तान्मात्रिक तथा दूसरे को मातृ-पितृजन्य मानता है। जैनमतानुसार मृतक का मृत्यु के समय औदारिक शरीर यहीं छूट जाता है और अगले जन्म के समय नवीन शरीर उत्पन्न होता है। कार्मणशरीर मृत्यु के बाद परलोक में साथ जाता है, और उस जीव के साथ-साथ रहता है। सांख्यमतानुसार मातृ-पितृजन्यस्थूल शरीर परलोक जाते समय साथ नहीं रहता, दूसरे जन्म में नया शरीर धारण करता है। किन्तु लिंग शरीर कायम रहता है, जहाँ भी आत्मा जाती है, वहाँ साथ में रहता है। सांख्यमत में द्रव्यभावकर्म की तुलना जैन दर्शन से ... जैनमतानुसार अनादिकाल से सम्बद्ध कार्मण शरीर मोक्ष के समय निवृत्त हो जाता है, इसी प्रकार सांख्यमत में भी मोक्ष के समय लिंग शरीर १. (क) आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. १०१ से १०३ तक
(ख) योगदर्शनभाष्य १/५, २/३, २/१२-१३ तथा उसकी तत्त्ववैशारदी, भास्वती • आदि टीकाएँ (ग) सांख्यकारिका ५२ की माठरवृत्ति, (घ) सांख्यतत्त्वकौमुदी का. १७, १९, २०, ४० (ङ) सांख्यकारिका का.३९ (च) योगदर्शन (माठर)४४-४० (छ) सांख्यकारिका ४१, ४०, ४६ (ज) सांख्यतत्त्वकौमुदी ४0, ५२
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