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३४८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) ..
से भगवान् महावीर के प्रति जो प्रशस्त राग (शुभ मोह) था, वह क्षीण न हो सका। उनका पुरुषार्थ तभी कृतकार्य हुआ, जब उन्होंने अपने स्वभाव से उस प्रशस्त राग को भी दूर कर दिया, फलतः घाती कर्म भी नष्ट हुए और काललब्धि की अनुकूलता हुई। इसीलिए एकान्त पुरुषार्थवाद को मानना श्रेयस्कर नहीं है।
आचार्य समन्तभद्र का कथन है कि दैव, कर्म, भाग्य और पुरुषार्थ के विषय में एकान्तदृष्टि को छोड़कर सापेक्षदृष्टि-अनेकान्तवादी दृष्टि रखनी चाहिए। जहाँ मनुष्य के द्वारा बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ (कम) न करने पर . भी उसे इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो, वहाँ दैव को मुख्य मानना चाहिए, क्योंकि उसमें पुरुषप्रयत्न गौण है, दैव प्रधान है और जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति हो, वहाँ स्व-पुरुषार्थ को मुख्य मानना चाहिए, दैव और कर्म को गौण। इस प्रकार कहीं दैव प्रधान होता है, कहीं पुरुषार्थ। दोनों एक दूसरे के पूरक-सहायक बनकर ही कार्य को पूर्ण करते हैं। निष्कर्ष यह है कि दैव और पुरुषार्थ के सम्यक् समन्वय से ही कार्यसिद्धि होती है। पांच कारणवादों का समन्वय
भगवान् महावीर का यह सिद्धान्त है कि ये पांचों कारण समन्वित होने पर ही कर्मवाद के पूरक एवं सहयोगी बनते हैं। ये पांचों सापेक्ष हैं और अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं। काल प्रकृति की वस्तु के व्यवस्थितरूप से परिणमन होने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव भी उसके द्वारा कार्य होने में सहायक तत्त्व है। नियति सार्वभौम जागतिक नियम (यूनिवर्सल लॉ Universal law) है, जो प्रत्येक कार्य के साथ समानरूप से लागू होता है। व्यक्ति ने मन-वचन-काया से, जाने-अनजाने, पूर्वकाल में स्थूल-सूक्ष्मरूप से जो कुछ किया-कराया या अनुमोदित किया होता है, उस क्रिया का अंकन कर्मबन्ध के रूप में होता है। और फिर समय आने पर उस क्रिया (कर्मरूप से बद्ध क्रिया) की प्रतिक्रिया होती है। यही पुराकृत कर्म है, जो प्रत्येक अच्छी-बुरी घटना के साथ होता है। वर्तमान में जो क्रिया की जाती है, जिससे कर्मों का आस्रव या बन्ध तथा संवर, निर्जरा या मोक्ष होता है, वह पुरुषार्थ है। वैसे देखा जाए तो कर्म और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्म पहले किया हुआ (अतीत का) पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ वर्तमान का पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ करने का प्रथम क्षण 'पुरुषार्थ' कहलाता है और उसके व्यतीत हो जाने पर वही पुरुषार्थ अतीत हो जाने से 'कर्म' कहलाने लगता है। १. आप्तमीमांसा कारिका ८८-९१। २. कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से साभार उद्धृत पृ. १३०
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