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________________ पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३४७ भव (जन्म) में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। अर्जुनमाली जैसा क्रूर हत्यारा बना हुआ मानव तप-संयम एवं क्षमा, समता आदि धर्मों की साधना में पुरुषार्थ करके दीक्षा लेने के छह महीने बाद ही समस्त कर्मों को क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। ऐसे लोकोत्तर सम्यक् पुरुषार्थ के एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं। पुरुषार्थ से प्राणी कर्मों पर विजय प्राप्त करके अनन्त आत्मिक सुख को प्राप्त कर लेता है। और तो और सम्यक् पुरुषार्थ से कर्म और कर्मफल में भी परिवर्तन किया जा सकता है। कर्मों में परस्पर संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशमना आदि करण पुरुषार्थ पर ही आधारित हैं। जो कार्य सहज रूप से नहीं हो सकता, उसे पुरुषार्थ के बल पर किया जा सकता है। कभी-कभी काल और स्वभाव पर भी पुरुषार्थ विजय पा लेता है। पुरुषार्थ से अकाल (असमय) में आम पैदा किया और पकाया जा सकता है। स्वभाव भी पुरुषार्थ से पलटा जा सकता है। उद्यम से अभ्यास होता है, अभ्यास से कार्यकुशलता और विशेषज्ञता आती है, और इनसे आदत या टेव (Habit) बन जाती है। आदत से प्रत्येक सत्कार्य करने में आसानी हो जाती पुरुषार्थ की यह विशेषता है कि अगर एक बार में काम नहीं बनता है तो दूसरी बार प्रयत्न किया जा सकता है। दृढ़संकल्प, लगन और उत्साह के साथ पुरुषार्थ करने से कठिनतम कार्य भी सिद्ध होते हैं। दृढ़संकल्प और पुरुषार्थ के बल पर ही तेनसिंह और हिलेरी ने हिमालय की २९२०२ फीट ऊँची सर्वोच्च चोटी भी सर कर ली थी। प्रबल पुरुषार्थी के लिए प्रकृति भी सहायक हो जाती है, वह भी मार्ग दे देती है। ___ अतः पांचों कारणों में पुरुषार्थवाद ही विश्ववैचित्र्य का प्रबल कारण है। इसीलिए एक महान् आचार्य ने कहा है-"कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वतानन्दहेतोः।" मोक्ष के परम आनन्द को पाने के लिए पुरुषार्थ करो-पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थवाद-समीक्षा - यह ठीक है कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि में पुरुषार्थ भी एक कारण है, : परन्तु यदि काल अनुकूल न हो, उस वस्तु का वैसा बनने या करने का स्वभाव न हो, वह विश्व के अटल नैसर्गिक नियम के विरुद्ध हो, तथा पुरुषार्थ करने वाले के पूर्वकृत कर्म अनुकूल न हों तो चाहे जितना पुरुषार्थ करने पर भी वह कार्य सिद्ध नहीं हो पाता। .. गौतम गणधर तप संयम के धनी थे, प्रबल पुरुषार्थी थे, भगवान् महावीर के प्रमुख अन्तेवासी पट्टशिष्य थे, कर्मों को जीतने का वे सतत पुरुषार्थ करते रहे, परन्तु जब तक काल नहीं पक गया, तब तक उनके मन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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