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________________ ३४६ कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) सिद्धियाँ भी साधना में पुरुषार्थ के द्वारा मनुष्य प्राप्त कर लेता है । पुरुषार्थ से व्यक्ति बड़े से बड़े संकट को पार कर लेता है। वनवासी एवं साधनहीन श्रीराम ने पुरुषार्थ किया तो रावण जैसे महायोद्धा को पराजित करके लंका पर विजय प्राप्त की और रावण द्वारा अपहृत महासती सीता को उसके चंगुल से मुक्त करके अयोध्या ले आए। नीतिकार भी कहते हैं- "उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मनसूबे बांधने से नहीं । सोये हुए सिंह के मुंह में मृग प्रविष्ट नहीं हो जाता । " जो व्यक्ति हाथ पर हाथ धरकर बैठा रहता है, उसके घर के आंगन में लक्ष्मी आकर नहीं बसती । उद्योगी पुरुषसिंह के पास ही लक्ष्मी आती है। जो कायर और आलसी होते हैं - वे ही कहा करते हैं कि दैव (भाग्य) स्वयं देगा। अतः दैव को छोड़कर अपनी शक्तिभर पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ करने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होता है तो इसमें कौन-सा दोष है ? " : व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो भी उद्यम किये बिना कोई भी वस्तु तैयार नहीं होती। तपेली में पानी गर्म करके उसमें दाल डाले बिना दाल नहीं पकती, उसमें चावल डाले बिना भात भी नहीं पकता । उद्यम से बड़े-बड़े अभेद्य दुर्ग मनुष्य ने बनाए, अणुबम, उद्जनबम आदि भी बनाए, जिनसे सारे विश्व को कम्पित किया जा सकता है। उद्यम द्वारा मानव ने जल, स्थल और आकाश पर विजय प्राप्त की । वह उन पर विविध यानों द्वारा द्रुतगमन करने लगा। बड़े-बड़े बाँध और सरोवर उद्यम के ही प्रतिफल हैं। उद्यम द्वारा मनुष्य ने बड़े-बड़े उत्तुंग प्रासाद (बिल्डिंग) बनाए । कर्म भी उद्यम (पुरुषार्थ) के बिना नहीं होते। इसलिए कर्म का जनक कर्त्ता या पिता तो उद्यम ही है। अतः कर्म तो उद्यम का पुत्र है। कर्म ( पूर्वकृत कर्मबन्ध) का मूल कारण भी तो उद्यम है। मोक्षमार्ग की साधना में पुरुषार्थ करके मानव कर्मों की जंजीरों को तोड़कर मुक्त हो जाता है। भरत और बाहुबली, जो एक दिन परस्पर युद्धरत थे, संघर्षमग्न थे, अपने सम्यक् पुरुषार्थ से कर्मों को खदेड़कर उसी १. (क) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ (ख) उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी वेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, यत्कृते यदि न सिध्यति, कोऽत्र दोषः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - हितोपदेश - हितोपदेश www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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