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________________ पंच- कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३४५ भी सांसारिक जड़-चेतन पदार्थों में अत्यन्त आसक्त अथवा भोगों में आकण्ठ डूबे हुए या कषायादि विकारों से अत्यन्त ग्रस्त व्यक्तियों को सहसा इन्हें त्याग करने की प्रबल भावना क्यों जाग जाती है ? इसका कारण कर्म नहीं है, किन्तु व्यक्ति की अन्तश्चेतना है, जो प्रबल शक्तिमान है, वही विजातीय तत्त्वों से न्यूनाधिकरूप में सतत संघर्षरत है। आत्मा को अपने सहज सच्चिदानन्दस्वरूप अवस्था की ओर जाने की प्रेरणा उसी से मिलती है। अगर व्यक्ति जागरूक होता है तो किये हुए घोर कर्मों को भी क्षणभर काट सकता है। कर्म से मिलने वाले संभावित फल में भी वह अपने शुद्ध परिणामों की धारा से प्रचुर परिवर्तन कर सकता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के कायोत्सर्गमुद्रा में स्थित रहते ही मन से घोर पापकर्म बंध गए थे, किन्तु कुछ ही समय बाद उनकी चेतना जागृत हुई, उन्होंने अपने स्वरूप को संभाला और उत्कृष्ट शुद्ध परिणाम- धारा में बहकर पश्चात्ताप की अग्नि में समस्त कर्मों को भस्म कर डाला। वे समस्त कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध परमात्मा बन गए। अतः कर्म की शक्ति और उसकी सीमा को समझने से ही कर्मवाद का रहस्य हृदयंगम हो सकेगा। यद्यपि कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद, इन सबसे कर्मवाद व्यापक है । ईश्वरकर्तृत्ववादी भी कर्मवाद को मानते हैं और आत्मकर्तृत्ववादी भी कर्मवाद को स्वीकारते हैं। फिर भी एकान्त कर्मवाद को ही सब घटनाओं का कारण मान लेना मिथ्या धारणा है। पुरुषार्थवाद की मीमांसा पांच कारणों में अन्तिम कारण पुरुषार्थ है । वैसे देखा जाए तो पूर्वकृत पुरुषार्थ 'कर्म' कहलाता है और वर्तमान में किया जाने वाला कर्म 'पुरुषार्थ कहलाता है। ये दोनों कर्म के ही दो रूप हैं । पुरुषार्थ कर्म को काटने या बदलने के लिए वर्त्तमानकालीन उद्यम है - ज्ञानादि रत्नत्रय - साधना में । इसे पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम आदि भी कहा जाता है । पुरुषार्थवाद का अपना दर्शन है। उसका कथन है कि संसार में सभी पदार्थों या धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष आदि पदार्थों की सिद्धि - प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ ही एकमात्र समर्थ है। बिना पुरुषार्थ के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। संसार में प्रत्येक कार्य के लिए नीतिकार भी उद्यम (पुरुषार्थ) का ही समर्थन करते हैं। संसार में जो कुछ उन्नति, प्रगति, अभ्युदय या प्रेय- श्रेय की प्राप्ति होती है या हुई है, वह सब पुरुषार्थ का ही परिणाम है। संसार के वैचित्र्य, वैषम्य एवं वैसादृश्य का कारण भी प्राणी का अपना-अपना पुरुषार्थ है । पुरुषार्थ करने से मनुष्य अपने अभीष्ट मनोरथ को सिद्ध कर सकता है, चाहे जिस वस्तु की उपलब्धि कर सकता है। बड़ी-बड़ी शक्तियाँ, लब्धियाँ, उपलब्धियाँ और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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