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आत्मा का अस्तित्व : कर्म - अस्तित्व का परिचायक १५
यही बात अन्य इन्द्रियों के विषय में है । किसी भी इन्द्रिय में स्वयं में ऐसी शक्ति नहीं है, कि वह अकेली ही अन्य इन्द्रियों के विषयों का एक साथ अनुभव कर सके । सूत्रकृतांग वृत्ति में भी कहा गया है- पाँचों इन्द्रियों के जाने हुए विषय को समष्टिरूप से अनुभूति कराने वाला द्रव्य कोई भिन्न ही होना चाहिए, उसे ही आत्मा कहते हैं ।' अतः कोई ऐसी शक्ति होनी चाहिए, जो एक साथ ही देखना, सुनना, सूंघना, चखना, स्पर्श करना आदि क्रियाएँ कर सके; वह शक्ति आत्मा के सिवाय और कोई नहीं है । अतः इन्द्रियादि पौद्गलिक (अचेतन) वस्तुओं से भिन्न स्वतंत्र सचेतन आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा आदि है । यही कारण है कि वृहदारण्यक उपनिषद् में बताया है - "प्राण का ग्रहण करने वाला वही है, मन का विचार करने वाला वही है, ज्ञान का जानने वाला वही है । यही द्रष्टा है, यही श्रोता है, यही मन्ता है और यही विज्ञाता है ।"२ अतः सभी इन्द्रियों द्वारा जाने गये विषयों एवं ज्ञानों में एकसूत्रता देखने वाले ग्रहणकर्ता के रूप में आत्मा का अस्तित्व • सिद्ध होता है । इन्द्रियाँ अचेतन एवं क्षणिक हैं । उनसे ऐसा हो नहीं सकता । इसलिए इन्द्रियों से भिन्न सकल ज्ञान और विषय को ग्रहण करने कोई अवश्य होना चाहिए, जो ऐसा है, वही आत्मा है ।
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१७. ज्ञान रूप असाधारण गुण के कारण आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता हैआत्मा का असाधारण लक्षण ज्ञान है । वह आत्मा (चेतन) के अतिरिक्त किसी भी शरीर, मन, बुद्धि या इन्द्रिय का लक्षण नहीं हो सकता । आत्मा और ज्ञान, ये दोनों अभिन्न हैं । आचारांग सूत्र में कहा गया है - जो विज्ञान है वही आत्मा है, जो आत्मा है वही विज्ञान है । नियमसार एवं पंचास्तिकाय में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि ज्ञान से भिन्न आत्मा और आत्मा से भिन्न ज्ञान कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता । *
यदि ज्ञान को शरीर, इन्द्रियों, मन आदि का लक्षण मानें तो बड़े-छोटे शरीर में, बृहदाकार तथा लघु आकार की इन्द्रियों में या
१ पंचण्ह संजोगे अण्णगुणाणं न चेयणाइ गुणो होई । पंचिंदियठाणाणं सा अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ॥
.२ (क) बृहदारण्यक उपनिषद् ३/४/१-२, ३/७/२३, ३/८/११
(ख) तत्त्वार्थ वार्तिक २/८/१९ पृ. १२
३ (क) स्याद्वाद मंजरी, कारिका १७, पृ.१७३
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक २/८/२७
. (कं) जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया । (ख) पंचास्तिकाय ४३
(ग) अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो न संदेहो ।
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- सूत्रकृतांगवृत्ति
- नियमसार १७१
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