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________________ १६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) संजी-असंज्ञी दोनों प्रकार के जीवों में ज्ञान की न्यूनाधिकता होनी चाहिए, परन्तु यह तथ्य अनुभवसिद्ध नहीं है। ज्ञान अगर शरीरादि का लक्षण माना जाएगा तो मृतशरीर में भी ज्ञान का अस्तित्व मानना पडेगा, जो असम्भव है । अतः ज्ञान गुण के कारण गुणी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। १८. जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञानरूप गुण न्यूनाधिकरूप में अवश्य रहता हैयह बात दूसरी है कि विभिन्न आत्माओं पर कर्मों का आवरण भिन्न-भिन्न प्रकार का होने के कारण विभिन्न जीवों के ज्ञान में न्यूनाधिकता होनी सम्भव है, परन्तु ऐसा कदापि नहीं होता कि जहाँ आत्मा हो, वहाँ ज्ञान न हो। नन्दीसूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि संसार के समस्त जीवों में निगोदस्थ (अनन्तकायिक) जीव ऐसे हैं, जिनके उत्कट ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता है । फिर भी जैसे घनघोर घटाओं से सूर्य के पूर्णतः आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का कुछ अंश अनावृत रहता है, जिससे दिन और रात का विभाग होता है, उसी प्रकार उन जीवों में भी ज्ञान (अक्षरश्रुत) का अनन्तवाँ भाग नित्य अनावृत (उद्घाटित) रहता है। यदि ज्ञान पूर्णरूप से आवृत हो जाए तो जीव (आत्मा) भी अजीवत्व (अनात्मत्व) को प्राप्त हो जाए । इस तथ्य को स्पष्ट रूप से एक रूपक द्वारा समझें । जैसे-घनघोर घटाओं को विदीर्णकर दिवाकर की प्रभा भूमण्डल पर आती है, किन्तु सभी मकानों पर उसकी प्रभा एक सरीखी नहीं पड़ती। मकानों की बनावट के अनुसार कहीं मन्द, कहीं मन्दतर और कहीं मन्दतम रूप में पड़ती है, वैसे ही जीवों को अपनी-अपनी बनावट तथा मतिज्ञानावरणीय आदि के उदय की न्यूनाधिकता के अनुसार ज्ञान की प्रभा किसी में मन्द, किसी में मन्दतर और किसी में मन्दतम होती है परन्तु उनमें ज्ञान पूर्ण रूप से कभी तिरोहित नहीं होता। १९. सुषुप्ति अवस्था में भी ज्ञान एवं चैतन्य का अनुभव-नैयायिक और वैशेषिक सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य का तथा सांख्य दार्शनिक ज्ञान का अनुभव नहीं मानते । इनका कहना है कि यदि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा में ज्ञान या चैतन्य रहता तो जागृत अवस्था के समान सुषुप्तिअवस्था में भी वस्तुओं का ज्ञान होता; किन्तु वह नहीं होता है । इसलिए सिद्ध है कि सुषुप्त अवस्था में आत्मा में ज्ञान या चैतन्य नहीं रहता। १ सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडिओ हवइ। जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पावेज्जा। सुटु वि मेहसमुदये होई पभा चन्द सूराण ॥ -नन्दीसूत्र ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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