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१४ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
(अनिश्चय) रूप भी नहीं होता, क्योंकि अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है।
१५. आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता, मंता आदि है, अचेतन पदार्थ नहींजैनदर्शन अजीव (अचेतन जड़) से भिन्न जीव (आत्मा) को सचेतन मानता है तथा उसे ही विज्ञाता, द्रष्टा, श्रोता, मन्ता, स्वतंत्र आत्मा कहता है । ये लक्षण अचेतन-जड़-अजीव में नहीं पाये जाते । साधारणतया यह कहा जाता है कि हम अपनी आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, नांक से सूंघते . . हैं, जीभ से चखते हैं, मन से विचार करते हैं आदि, किन्तु यह यथार्थ नहीं है । ये इन्द्रियाँ और मन तो उपकरण मात्र हैं, जड़ हैं, भौतिक हैं, विषयों को जानने, देखने आदि की शक्ति तो आत्मा में है । अगर इन्द्रियाँ और मन में ही देखने-जानने आदि की शक्ति होती तो मुर्दा प्राणी क्यों नहीं देख-सुन पाता ? वह क्यों नहीं बोलता? वह क्यों नहीं सोचता ?, जबकि द्रव्येन्द्रिय एवं द्रव्यमन तो उसके भी होता है । इसका कारण यह है कि देखने-सुनने आदि की शक्ति तो आत्मा में थी । जब तक उस मृत प्राणी में आत्मा थी, तब तक इन्द्रियों व मन देखने सुनने आदि का कार्य करते थे । परन्तु उस मृत शरीर में से आत्मा के निकल जाने से वह अब देख-सुन आदि नहीं सकता ।
१६. संकलनात्मक ज्ञान करने वाली आत्मा है, इन्द्रियों नहीं-इस सम्बन्ध में एक तथ्य और भी विचारणीय है । कान केवल शब्द सुन सकते हैं, आँखें केवल दृश्य पदार्थों को देख सकती हैं, नाक सिर्फ सूंघ सकती है, जीभ केवल स्वाद का अनुभव कर सकती है, और त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय) केवल शीत-उष्ण आदि स्पर्शों का ज्ञान कर सकती है, और ये सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ज्ञान आत्मा की शक्ति से ही कर सकती हैं, अन्यथा नहीं । यही कारण है कि आँख बन्द कर लेने पर दूसरी इन्द्रिय.या अंग से देखा नहीं जा सकता, कान बंद कर लेने पर दूसरे किसी अंग या इन्द्रिय से सुना नहीं जा सकता। १ (क) विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५७२ (अनुवाद) पृ. १६
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक २/८/२० २ (क) जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया । जेण विजाणति से आया, तं पडुच्च पडिसखाए; से आयावादी ।
-आचारांग श्रु. १ (ख) आत्मा ज्ञान, स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?
-आचार्य अमृतचन्द्र (ग) कर्मग्रन्थ भाः १(मरुधरकेसरी मिश्रीमल जी म.) (प्रस्तावना) पृ.३६
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