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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक १३ आत्मा है, इसी प्रकार दूसरों के शरीर में भी आत्मा की सत्ता अवश्य होनी चाहिए । दूसरों के शरीर में आत्मा न हो तो घट-पट आदि अचेतन पदार्थों के समान उनकी भी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति न होती' । १२. अनुमान - प्रमाण द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि - यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि साध्य (लिंगी) के साथ हेतु (लिंग) को पहले प्रत्यक्ष देखा हो, तभी बाद में हेतु से साध्य की सिद्धि हो सकती है । जैसे—किसी व्यक्ति ने भूत को हास्य, गान, रुदन, हाथ-पैर मारने की क्रिया, नेत्रविक्षेप आदि लिंगों (हेतुओं) के साथ पहले कभी देखा नहीं, फिर भी इन लिंगों को देखकर दूसरे के शरीर में भूत होने का अनुमान होता है; उसी प्रकार आत्मा साथ किसी लिंग (हेतु) का प्रत्यक्ष दर्शन पूर्वगृहीत न होने पर भी आत्मा का अनुमान हो सकता है ; यह मानना चाहिए' । १३. संशय का विषय होने से आत्मा की सत्ता सिद्ध है - भ. महावीर न गणधर गौतम से कहा- "तुम्हारे में आत्मा (जीव) है, क्योंकि तुम्हें इस विषय में संशय है । जिस विषय में संशय हो, वह अवश्य ही विद्यमान होता है । जो अवस्तु हो सर्वथा अविद्यमान हो, उसके विषय में कभी किसी को संशय नहीं होता । जैसे - यह ठूंठ है या पुरुष ? इस प्रकार के संशय में दोनों ही वस्तुएँ विद्यमान हैं । संशयास्पद दोनों वस्तुएँ, वहीं (उसी स्थल पर) विद्यमान हों, ऐसा नियम नहीं है । संशय की विषयभूत वस्तु वहाँ या अन्यत्र कहीं भी विद्यमान हो सकती है । 'गधे के सींग' के विषय में संशय हो तो संशयास्पद सींग चाहे गधे के न हों, किन्तु अन्यत्र गाय आदि के तो है ही । विश्व में सींग का सर्वथा अभाव नहीं है ' । १४. विपर्यय और अनध्यवसाय द्वारा भी आत्मा की सिद्धि - यही बात विपर्यय ज्ञान या भ्रमज्ञान के विषय में समझ लेनी चाहिए। यदि जगत् में सर्प का सर्वथा अभाव होता तो रस्सी के टुकड़े में सर्प का भ्रम कदापि नहीं होता । इस न्याय से यदि तुम शरीर में आत्मा का भ्रम ही मानो तो भी आत्मा का अस्तित्व वहाँ नहीं, तो अन्यत्र कहीं मानना ही पड़ेगा । और विपर्यय भी अप्रसिद्ध या अविद्यमान पदार्थ का नहीं होता, प्रसिद्ध एवं विद्यमान पदार्थ का ही होता है । इसलिए विपर्यय ज्ञान से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । 'आत्मा है,' यह ज्ञान अनध्यवसाय १ विशेषावश्यक भाष्य ( गणधरवाद) गा. १५६४ (अनुवाद) पृ. १३ २ वही, गा. १५६५-६६ (अनुवाद) पृ. १३ ३ वही, गा. १५७१ (अनुवाद) पृ. १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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