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________________ १२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) . पदार्थ ही हो सकता है । अतः संशय का ज्ञान आत्मरूप होने से संशयी (आत्मा) का अस्तित्व सिद्ध होता है । देह मूर्त और जड़ होने से अमूर्त और बोधरूप ज्ञान के ज्ञाता आत्मा को ही गुणी मानना चाहिए । तत्त्वार्थ वार्तिक में कहा गया है- "आत्मा है या नहीं? इस प्रकार का ज्ञान संशयरूप हो तो उससे भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । क्योंकि जिसका अस्तित्व है, उसी के विषय में संशय होता है । जो अवस्तु है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उसके विषय में संशय होता ही नहीं ।" अतः आत्मा के विषय में संशय होने से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।' ९. गुणों के प्रत्यक्ष से गुणी आत्मा का प्रत्यक्ष-'आत्मा प्रत्यक्ष है, क्योंकि उसके स्मरणादि विज्ञानरूप गुण स्व-संवेदन द्वारा प्रत्यक्ष हैं । जिस गुणी के गुण प्रत्यक्ष होते हैं, वह गुणी भी प्रत्यक्ष होता है, जैसे-घटादि के प्रत्यक्ष का आधार उसके रूपादि गुण हैं । आत्मा के स्मरणादि गुण प्रत्यक्ष होने से आत्मा (गुणी) भी प्रत्यक्ष है। गुण गुणी से अभिन्न हो तो गुणदर्शन से गुणी का भी साक्षात् दर्शन . मानना चाहिए । जैसे कपड़े और उसके रंग के अभिन्न होने से रंग के ग्रहण से वस्त्र का भी ग्रहण हो जाता है, वैसे ही स्मरणादि गुणों के प्रत्यक्ष से आत्मा का भी प्रत्यक्ष हो ही जाता है । १०. विज्ञाता आत्मा ज्ञानरहित इन्द्रियों से भिन्न है-शरीर में विद्यमान इन्द्रियों से विज्ञाता-आत्मा भिन्न है, क्योंकि इन्द्रियों के व्यापार के अभाव में भी उनसे उपलब्ध पदार्थों का स्मरण होता है। जैसे-झरोखे द्वारा देखी गई वस्तु को देवदत्त झरोखे के बिना भी याद कर सकता है । अतः देवदत्त झरोखे से भिन्न है । उसी प्रकार इन्द्रियों के बिना भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का स्मरण करने से आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न मानना चाहिए । अतः विज्ञाता आत्मा ज्ञान चैतन्यरहित इन्द्रियों से भिन्न है । उसका पथक स्वतंत्र अस्तित्व है। ११. दूसरों के शरीर में आत्मा की सिद्धि-अपने शरीर में जैसे विज्ञानमय आत्मा है, वैसे ही दूसरों के शरीर में भी विज्ञानमय आत्मा है; क्योंकि जैसे हमारी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति होती है, वैसे ही दूसरों की भी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति होती है । इसलिए हमारे शरीर में १ (क) विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५५६ (अनुवाद) प. ९ (ख) तत्त्वार्थवार्तिक २/८/२० २ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५५९ (अनुवाद) पृ. १० ३ वही, (गणधरवाद) गा. १५६२ (अनुवाद) पृ. १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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