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३४२ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
होता तो कर्म ही सब कुछ हो जाता। परन्तु आत्मा का, चैतन्य स्वभाव, कभी अपने आपको नष्ट होने या बदलने नहीं देता। इसलिए कर्म आत्मा पर कितना ही प्रभाव डाले, वह एकाधिकार नहीं जमा सकता। कर्म तभी तक टिकता है, जब तक चेतना नहीं जागती। चेतना के जागृत होते ही कर्म स्वतः नष्ट होने लग जाता है।
सिद्धान्त यह है कि कर्म का पूर्ण साम्राज्य या आधिपत्य आत्मा पर हो जाए तो. भी वह उसे पूर्णतया प्रभावित नहीं कर सकता। मोहकर्म का आधिपत्य तभी तक आत्मा पर रहता है जब तक आत्मा अपने स्वरूप तथा अपनी शक्ति के प्रति जागरूक न हो जाए। जब आत्मा का चैतन्य स्वभाव जागृत हो जाता है तब कर्म की सत्ता डगमगाने लगती है।
दूसरी बात-विश्व की प्रत्येक घटना का कारण अकेला कर्म ही नहीं है। यदि प्रत्येक घटना के पीछे कर्म का ही हाथ है, और हर घटना कर्म से प्रभावित होकर घटित होती है, तब फिर इस अनादिकालीन कर्मचक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है ? जीवन में अनेक घटनाएं ऐसी भी होती है, जो कर्म से प्रभावित नहीं भी होती।
सत्य तो यह है कि जो घटनाएँ कर्म की सीमा में आती हैं, कर्म के योग्य होती है, वे ही कर्म के प्रभाव से घटित होती हैं। सब घटनाएँ कर्म के प्रभाव से घटित नहीं होती।
आज प्रायः आम आदमी की धारणा ऐसी बन गई है कि वह सहसा कह बैठता है-"क्या करें, ऐसे ही कर्म किये थे, इसलिए ऐसा हो गया। कर्मों का ऐसा ही भोग था। हमारे बस की बात नहीं रही।"
व्यावहारिक क्षेत्र में कर्मवाद से अनभिज्ञ व्यक्ति यह कह बैठते हैं"हमसे यह साधना नहीं हो सकती, क्योंकि कर्मों का ऐसा ही योग है।" इसका मतलब यह है कि ऐसे व्यक्तियों के मन में यह पक्की धारणा बैठ गई है कि 'हम सब कर्माधीन हैं। कर्म जैसे नचाएगा, वैसे नाचेंगे। हम तो कर्म के हाथ की कठपुतली हैं।' इस कारण प्रत्येक घटित घटना, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, ऐसे व्यक्ति उसे कर्म के साथ जोड़ देते हैं, और यही विश्लेषण करने लगते हैं-'यह कर्म का ही प्रभाव है। कर्म के कारण ही ऐसी घटना हुई है। अन्यथा, ऐसा नहीं होता।' परन्तु यह कर्मवाद के रहस्य की नासमझी है, बहुत बड़ी भ्रान्ति है।
यह तो वैसा ही हुआ-जिस प्रकार ईश्वरकर्तृत्ववादी सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर डालकर स्वयं निर्दोष हो जाते हैं। कहते हैं-'हम अत्यन्त अनजान और अशक्तिमान हैं। अपने सुख-दुःख के विषय में क्या
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