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पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय
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जानें, ईश्वर ही जानता है, उसी की प्रेरणा से जीव नरक या स्वर्ग में जाते है। सारा उत्तरदायित्व ईश्वर का ही है।' इसी प्रकार कर्मवादी भी कर्म पर सारा उत्तरदायित्व डालकर स्वयं निर्दोष और अलग हो जाते हैं। बेचारा कर्म फंस जाता है, आदमी स्वयं बच जाता है। अच्छा-बुरा जो कुछ भी परिणाम होता है, सबका उत्तरदायित्व कर्म पर डालकर स्वयं अलग छिटक जाते हैं। उनके मुंह से प्रायः ये ही उद्गार निकलते हैं-"मैं क्या करता । ऐसा ही कर्म था, इसलिए उसने ऐसा कराया !" ।
इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने ईश्वर को सर्वशक्तिसम्पन्न मानने की तरह कर्म को ही सर्वशक्तिसम्पन्न मान लिया। फिर तो वे ईश्वर को माने या कर्म को, कोई अन्तर नहीं पड़ता। केवल नाम का ही अन्तर रहा। सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता में परिवर्तन कोई नहीं हुआ। परन्तु उन्हें इस मिथ्या धारणा को मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए कि कर्म या अन्य काल आदि कोई भी सर्वशक्तिमान् सत्ता है। सभी की शक्तियाँ सीमित हैं। सर्वेसर्वा कर्म, काल आदि कोई भी शक्ति नहीं है। प्रकृति के विशाल साम्राज्य में किसी को अधिनायकत्व या एकाधिकार (Monopoly) प्राप्त नहीं है। कुछ शक्तियाँ काल में निहित हैं, कुछ स्व-पुरुषार्थ में, कुछ परिस्थिति में और कुछ स्वभाव में निहित हैं, तो कुछ शक्तियाँ कर्म में भी रही हुई हैं। चैतन्य की वास्तविक शक्ति पुरुषार्थ में निहित है, जिसके जरिये वह कर्म को भी बदल सकता है। हमारी चैतन्यशक्ति का प्रतीक अथवा हमारी क्षमता का अभिव्यक्त रूप पुरुषार्थ है।
यद्यपि काल, स्वभाव, नियति और कर्म, इन सभी तत्त्वों से मनुष्य बंधा हुआ है। और जब तक बन्धन है, तब तक वह पूर्णतया स्वतंत्र नहीं है। ये सारे तत्त्व मनुष्य की स्वतंत्रता के प्रतिबन्धक हैं। वे उसकी परतंत्रता को बढ़ाते हैं; तथापि यह निश्चय समझ लीजिए कि कोई भी प्राणी पूर्णरूप से परतंत्र नहीं है। अगर वह पूर्णरूप से परतंत्र होता तो उसकी चेतना का अस्तित्व या उसका व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता। अतः काल, कर्म आदि जितने भी तत्त्व हैं, वे शक्तिमान होते हुए भी सर्वशक्तिसम्पन्न नहीं हैं। इन सबकी शक्ति मर्यादित है। कर्म की भी अपनी एक सीमा है। वह आत्मा पर प्रभाव डालता है, परन्तु डालता है उसी आत्मा पर जिसमें राग-द्वेष हों, कषाय हों; रागद्वेषरहित या कषायरहित आत्मा पर कर्म का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता, उसका वश वहाँ नहीं चलता।
अगर कर्म की सार्वभौम सत्ता और शक्तिसम्पन्नता होती तो मनुष्य की साधना का कोई अर्थ नहीं रहता। यदि मनुष्य भ्रान्तिवश ऐसा ही मानता चला जाए कि कर्म में जो भी जैसा भी लिखा है, वैसा ही होगा; तब तो
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