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पच - कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३४१
कर्मवाद की समीक्षा
कुछ लोगों में यह भ्रान्ति फैली हुई है कि कर्म सर्वशक्ति सम्पन्न है । उसी की संसार में सार्वभौमसत्ता है । परन्तु यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। इसे तोड़ना ही चाहिए। कर्म ही सब कुछ नहीं । कुछ ऐसी भी स्थितियाँ हैं, जो कर्म से प्रभावित नहीं होतीं । आत्मा में ऐसी एक शक्ति है, जो कर्म से पूर्णरूपेण कदापि आवृत नहीं होती। यदि आत्मा पर कर्म पूर्णरूप से हावी हो जाता तो वह उसे कदापि तोड़ नहीं पाता। यदि कर्म ही सब कुछ होता तो मनुष्य समस्त बन्धनों को तोड़कर कभी सिद्ध - बुद्ध - मुक्त नहीं हो पाता । कर्म ही सार्वभौम सत्ता-सम्पन्न होता तो कोई भी प्राणी अव्यवहारराशि से निकलकर व्यवहारराशि में नहीं आ सकता था । अर्थात् - अविकसित जीवों की श्रेणी से वह विकसित जीवों की श्रेणी में कभी नहीं आ पाता । अव्यवहारराशि वनस्पतिजगत् के अनन्तकायिक सूक्ष्म जीवों का वह कोष है, जो कभी समाप्त नहीं होता। उसमें एक साथ अनन्त जीव रहते हैं। उनमें से दृश्यमान स्थूल जगत् में जितने भी जीव आते हैं, वे सब अव्यवहारराशि से आते हैं। अव्यवहारराशि में पड़ा हुआ जीव कदापि मुक्त नहीं हो सकता, जो भी मुक्त होता है, वह व्यवहारराशि से होता है। चैतन्य का विकास भी व्यवहारराशि में ही होता है।
प्रश्न होता है, अव्यवहारराशि वाले जीव व्यवहारराशि में आए, वे क्या कर्म के बल से आए ? नहीं । यदि कर्म ही सब कुछ होता तो वे वहीं पड़े रहते, किन्तु काल की ऐसी शक्ति है, जो कर्म से अप्रभावित रहती है। अव्यवहारराशि में पड़े हुए जीव के लिए एक काल, एक अवसर, एक चांस ऐसा आता है, कि काललब्धि के प्रभाव से उसकी आत्मा अपने अस्तित्व के विषय में जागृत हो जाती है। मिथ्यात्व - मोह कर्म की जड़ें हिल उठती हैं, उस आत्मा को अध्यात्म की किरणें प्राप्त हो जाती हैं। वह अविकसित चेतना की भूमिका से विकसित चेतना की भूमिका को प्राप्त कर लेता है।
यदि कर्म का ही एकछत्र साम्राज्य होता तो अनादिकाल से मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति मिथ्यात्व के उस गाढ़ अन्धकार का भेदन नहीं कर पाता । किन्तु आत्मा में ऐसी शक्ति है कि जैसे सूर्य के उदय होते ही चिरकाल का
द अन्धकार एकदम विलुप्त हो जाता है, वैसे ही जब आत्मा अपनी शक्ति के प्रति जाग्रत हो जाती है, तब वह कर्मचक्र को तोड़ने में समर्थ हो जाती है। यदि कर्म का ही एकछत्र साम्राज्य होता तो आत्मा की शक्ति कभी उसे चुनौती नहीं दे पाती।
कर्म पर सर्वाधिक नियंत्रण है- आत्मा के चैतन्य स्वभाव के स्वतंत्र अस्तित्व का । यदि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का सर्वदा स्वतंत्र अस्तित्व न
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