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________________ ३१८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) जाती है। इसके बाद न तो कहीं जाना है और न कहीं से आना है। यह खेल यहीं समाप्त हो जाता है। जो कुछ है, यह प्रत्यक्ष दृश्यमान इतना ही लोक है। परलोक या अन्य लोक की कल्पना करना मूर्खता है। आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, धर्म, अधर्म, शुभ-अशुभ कर्म (पुण्य-पाप) आदि सब भ्रान्ति में डालने वाले तत्त्व हैं। भूतचतुष्टय या पंच महाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति और विनाश मानने वाले भूतवादियों के अनुसार इहलौकिक सुख को छोड़कर अन्य किसी लोक के सुखों या अन्य आत्मिक सुखों.की कल्पना करना स्वयं को धोखे में डालना है। इनके मत से प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।' मानव-जीवन में शुद्ध विचार और तदनुसार आचरण का इनके वाद में कोई स्थान नहीं है। यह भूतात्मवाद उपनिषद्काल से ही यहाँ प्रचलित है। सूत्रकृतांग में 'तज्जीव-तच्छरीरवाद' के रूप में इसका विवरण है। वहाँ बताया गया है कि कोई मनुष्य म्यान में से तलवार को अलग दिखाता है या हथेली पर आँवला प्रत्यक्ष दिखाता है, अथवा दही में से मक्खन और तिल में से तेल निकाल कर अलग दिखाता है, इसी प्रकार जीव और शरीर को भिन्न मानने वाले शरीर से जीव को पृथक करके दिखा नहीं सकते, अतः जो शरीर है, वही जीव (आत्मा) है। डार्विन का विकासवाद : भौतिकवाद का रूप डार्विन का विकासवाद भी इसी भूतचैतन्यवादी भूतवाद से मिलताजुलता है। वह इसी का परिष्कृत रूप है। इसके सिद्धान्तानुसार चेतन तत्त्व (जीव जाति) का विकास जड़ और मूर्तिक तत्त्वों से ही माना जाता है। इस भौतिकवाद की मान्यता है कि अमीबा, घोंघा आदि बिना रीढ़ के प्राणियों से रीढ़दार पशुओं और मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है। जड़ तत्त्वों से भिन्न स्वतन्त्र कोई चेतनतत्त्व (आत्मतत्त्व) नहीं है। जड़ तत्त्वों के विकास और ह्रास के साथ ही चैतन्य तत्त्व का विकास-ह्रास होता जाता है। अर्थात् प्राणियों की शरीरिक शक्ति के विकास-ह्रास के अनुरूप ही उनमें प्राणशक्ति तथा बौद्धिक शक्ति का विकास-ह्रास होता है। परन्तु इस वाद का १. (क) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार जैन) (ख) एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे! वृकपदं पश्य, यद् वदन्ति विपश्चितः॥ -षड्दर्शन समुच्चय श्लोक ८१ -लोकतत्त्वनिर्णय श्लोक २९० २. (क) सर्वदर्शन संग्रह, परिच्छेद-१ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४ पृ. १० (ग) सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. १, सू. ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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