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________________ कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२ ३१९ निराकरण इसी से हो जाता है कि जड़ और मूर्तिक भूतों से चेतन और अमूर्तिक आत्मा की उत्पत्ति किसी भी प्रकार संभव नहीं है।' यह तथाकथित भूतवाद कर्मवाद के सिद्धान्त से सर्वथा विपरीत है। क्योंकि बहुत-सी बार अच्छा या बुरा कर्म करने वाले को उसका फल तत्काल नहीं मिलता, अगले जन्म या कई जन्मों के बाद मिलता है। परलोक या अन्य लोक न मानने पर तो संसार में सारी ही अव्यवस्था और अराजकता हो जाएगी। फिर तो क्यों कोई अपने पूर्वकृत कर्मों को क्षय करने तथा अहिंसा, विश्वमैत्री, क्षमा, समता, कषायविजय आदि की साधना करेगा ? आत्मा को शरीर की तरह मरणधर्मा, विनाशशील मानने से यह बात बनती नहीं है। आत्मा को शरीर से स्वतंत्र चैतन्य तत्त्व मानने पर ही यह सब सम्भव हो सकता है। देह से भिन्न आत्मा की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करने के लिए "मैं सुखी, मैं दुःखी" इत्यादि रूप में अह-प्रतीति ही सबसे बड़ा प्रमाण है। प्रत्येक प्राणी को ऐसा अनुभव होता ही है। भूतंवाद के विषय में विचारणीय यही है कि इस भौतिक शरीर यंत्र में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, जिजीविषा, संकल्पशक्ति, भावना, अहिंसादि के आचरण की वृत्ति, दया, क्षमा, आदि कोमल भावनाओं का उद्भव, कार्य-कारणभाव का निश्चय इत्यादि बातें जो पाई जाती हैं, वे अकस्मात् कैसे आ जाती हैं ? पूर्वकालिक स्मृति ही ऐसी वृत्ति है जो चिरकालीन पूर्वकृत कर्मसंस्कारों के बिना आ नहीं सकती। वे कर्मसंस्कार आत्मा के साथ प्रवाहरूप से अनादिकाल से सम्बद्ध है। __मनुष्यों के अपने जन्म-जन्मान्तरीय कर्मानुरूप संस्कार होते हैं, जिनके अनुसार वे इस जन्म में तथारूप में विकास करते हैं, उन्हें वैसी ही बुद्धि, शक्ति, प्राण, इन्द्रियाँ, शरीर के अंगोपांग आदि सामग्री (पर्याप्ति) मिलती है। अन्यथा एक ही समय में पंचभूतों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होने वाले दो व्यक्तियों में जो अन्तर पाया जाता है, वह भूतवाद को मानने से घटित नहीं हो सकता। .. कर्मवाद के अनुसार पूर्वजन्मों के कर्मसंस्कारों को मानने से ही यह घटित हो सकता है। जन्म-जन्मान्तरीय-स्मरण की अनेकों घटनाएँ अतीत में भी हुई हैं, वर्तमान में भी पढ़ी-सुनी जाती हैं। जिनसे यह सिद्ध होता है कि वर्तमान शरीर को छोड़कर आत्मा जब तक संसारी है, तब तक नये-नये शरीर को अपने पूर्वकृत कर्मानुसार धारण करता है, और वैसे ही संयोग उसे मिलते हैं। १. (क) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ. १४५ । (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४, पृ. १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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