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कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद- २ ३१७
भूतचतुष्टय की प्रक्रिया
जिस प्रकार महुआ, गुड़ आदि वस्तुओं के विशेष प्रकार के सम्मिश्रण से मद्य यैयार हो जाती है और उसमें मादकता (नशा) पैदा करने की शक्ति स्वयमेव आ जाती है। जैसे- चूना, कत्था, पान, सुपारी आदि पदार्थों के विशिष्ट संयोग से युक्त पदार्थ के सेवन करने से मुख में लाल रंग उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार भूत चतुष्टय के विशिष्ट संयोग से सम्मिश्रण से शरीर-सम्बद्ध चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है, जिसका प्रभाव समग्र शरीर, इन्द्रिय आदि में विशिष्ट शक्ति के रूप में देखा जाता है। उस तथाकथित चैतन्य का सदैव शरीर से सम्बन्ध रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह तथाकथित चैतन्य शरीर का ही धर्म है; आत्मा नाम के किसी स्वतंत्र तत्त्व का नहीं। शरीर के नष्ट या विशीर्ण होते (बिखरते) ही; अर्थात्-भूतचतुष्टय के संयोग में कुछ गड़बड़ी होते ही वह चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। बौद्धपिट्क में 'अजित केश कम्बली' के भूतचतुष्टयवाद का वर्णन है । 'गणधरवाद' में वायुभूति की शंका के रूप में, तथा विशेषावश्यक भाष्य में भी इस वाद का उल्लेख है । सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पौण्डरीक अध्ययन में पंचभूतों से जीव के पैदा होने का वर्णन है। बृहदारण्यक उपनिषद् में विज्ञानघन चैतन्य का भूतों से उत्पन्न होकर उसी में विलीन होने का उल्लेख है। साथ ही "न च प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" ऐसा भी संकेत है। भूतचतुष्टयवाद का मन्तव्य
जिस प्रकार एक मशीन अनेक छोटे-बड़े कल-पुर्जों से तैयार होती है। उन्हीं के परस्पर संयोग से उसमें गति एवं शक्ति आ जाती है, किन्तु अमुक अवधि के बाद उस मशीन के कल-पुर्जों के घिस जाने या बिगड़ जाने अथवा यंत्र में कोई गड़बड़ी हो जाने पर उसकी वह गति और शक्ति भी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार का यह चैतन्य सम्बद्ध शरीरयंत्र है, जो अमुक अवधि के बाद या किसी प्रकार की असाध्य बीमारी, एक्सीडेंट (दुर्घटना) अथवा किसी प्रकार की गड़बड़ी आदि होने पर चार या पांच महाभूतों का यह विशिष्ट संयोग टूटकर यहीं बिखर जाता है, नष्ट हो “जाता है। यह जीवन की धारा गर्भ से लेकर मरण - पर्यन्त चलती है। मरणकाल में शरीर - यंत्र में विकृति आ जाने से जीवनशक्ति समाप्त हो
१. (क) न्याय सिद्धान्त मुक्तावली टीका
(ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४ पृ. १०
२. विज्ञानघन एवैतेम्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न च प्रेत्य संज्ञाऽस्ति ।
-बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१२
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