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३१६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) .
कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२)
भूतवाद-समीक्षा
श्वेताश्वतर उपनिषद् में बताये गए सृष्टि-वैचित्र्य के छह कारणों में से भूतवाद पाँचवाँ कारण है।
भूतवाद सृष्टि के सभी पदार्थों की उत्पत्ति पृथ्वी आदि चार भूतों के विशिष्ट संयोग से मानता है। भूतवादियों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, इन चार भूतों,' (कोई आकाश को पाँचवाँ भूत मानकर पंचमहाभूतों) से जगत् के समस्त चेतन-अचेतन या मूर्त-अमूर्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इन भूतचतुष्टय के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र जड़ या चेतन पदार्थ इस सृष्टि में नहीं है।
जिसे जैन कर्मवादी आत्मतत्त्व या चेतन तत्त्व कहते हैं, वह इन्हीं चार भूतों की ही एक विशिष्ट परिणति है; जो विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति में उत्पन्न होती है, और उस परिस्थिति की अनुपस्थिति में वह वहीं स्वतः बिखर जाती है-नष्ट हो जाती है।
१. (क) 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषय-संज्ञा।'
-तत्त्वोपप्लवसिंह पृ.१ (ख) 'तेभ्यश्चैतन्यम्।'
-तत्त्वसंग्रहपंजिका पृ. २०५ २. (क) गणधरवाद गा. १६४९-१६५०
(ख) विशेषावश्यक भाष्य गा. १५५३ (ग) सूत्रकृताग पौण्डरीक अध्ययन (श्रु. २, सू. १०) में-'दोच्चे पुरिसजाए __ पंचमहब्भूए त्ति आहिए', तथा इसी अध्ययन के नौवें सूत्र में-'इति पढमे
पुरिसजाए तज्जीव-तच्छरीरएत्ति आहिए' कहा है। (घ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. ३० (ङ) बृहदारण्यक २/४/१२. (च) बौद्धपिटक में दीघनिकाय सामञफलसुत्त
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