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कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-१ ३०९ अकस्मात् ही होती है। किसी निश्चित कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। न्यायसूत्रकार के अनुसार यदृच्छावाद का मानना है कि अनिमित्त ही, अर्थात्-किसी निमित्तविशेष के बिना ही कांटे की तीक्ष्णता के समान भावों की उत्पत्ति होती है। यदृच्छावाद एक प्रकार का अटकलपच्चूवाद है। मनुष्य जिस विषय में कार्य-कारण-परम्परा का सामान्य बोध भी नहीं कर पाता, उसके सम्बन्ध में वह 'यदृच्छा' का पल्ला पकड़ता है। यदृच्छावाद के अनुसार किसी कार्य का कोई भी कारण या निमित्त नहीं खोज़ा जाता। इसमें कार्य-कारणभाव आदि के विषय में कोई भी विचार नहीं किया जाता। एक प्रकार से इसके प्रति उपेक्षा ही है। इसलिए यदृच्छावाद को सरल शब्दों में अकारणवाद, अनिमित्तवाद, अहेतुवाद, अकस्मात्वाद या अटकलपच्चूवाद कहा जा सकता है। न्यायसूत्रकार ने इस वाद का निराकरण भी किया है। महाभारत में भी यदृच्छावाद का उल्लेख है। ___'कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं, किन्तु दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि स्वभाववादी स्वभाव को कारणरूप मानते हैं, जबकि यदृच्छावादी कारण की सत्ता से ही इन्कार करते हैं।'
यदृच्छावाद कर्मवाद, ईश्वरवाद एवं नियतिवाद के विरोध में प्रयुक्त एक प्रतिशब्द है। किन्तु कर्मवाद आदि में तो कार्य-कारणभाव एवं निमित्त-नैमित्तिक भाव का विचार किया जाता है, यदृच्छावाद में तो कार्य-कारणभाव और वैज्ञानिकता दोनों के प्रति बिल्कुल उपेक्षा है। नियतिवाद-मीमांसा
दार्शनिक और धार्मिक जगत् में कर्मवाद के स्थान में बहुधा नियतिवाद छाया हुआ है। नियतिवाद का अर्थ भी अनेक प्रकार से किया गया है। इसलिए यह वाद काफी जटिल बन गया है।
नियति का एक अर्थ प्रचलित है-भवितव्यता या होनहार। यह अर्थ आम जनता में विशेष प्रचलित है। नियति के इस अर्थ के अनुसार उसकी व्याख्या यों की गई है कि-'जिसका, जिस समय में, जहाँ, जो होना है, वह
१. न्यायसूत्र ४/१/२२ २. वही, ४/१/२२ ३. महाभारत शान्तिपर्व ३३/२३ ४. प. फणिभूषणकृत न्यायभाष्य का अनुवाद ४/१/२४
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