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________________ कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-१ ३०७ इसी प्रकार तुम्बा पानी पर तैर जाता है और पत्थर पानी में डूब जाता है, इन सबमें स्वभाव का ही चमत्कार है, काल इसमें क्या कर सकता है ? गोम्मटसार, बुद्धचरित और सूत्रकृतांग टीका में कहा गया है-बबूल आदि के कांटों को कौन तीखा (नुकीला) करता है ? मृग, मोर तथा अन्य पक्षियों को विचित्र रंगों से कौन चित्रित करता है ? इन सबका एकमात्र कारण स्वभाव है। अतः इस सष्टि की विचित्रता या रचना का अन्य कोई ईश्वर, काल आदि कारण नहीं दिखता। विश्व में सब कुछ स्वभाव से निर्हेतुक होता है, दूसरे के प्रयत्न या इच्छा को इसमें अवकाश नहीं है।' __गीता और महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है। स्वभाववादी जगत् की प्रत्येक घटना, कार्य, गतिविधि, प्रगति या रचना आदि को स्वभावमूलक मानता है। वह जगत् की विचित्रता का कोई नियामक या कर्ता नहीं मानता। शास्त्रवासिमुच्चय में स्वभाववाद का पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-जीव का गर्भ में प्रविष्ट होना, विविध अवस्थाओं को प्राप्त करना, शुभ-अशुभ अनुभवों का होना स्वभाव के बिना शक्य नहीं है। इसलिए समस्त घटनाचक्र का कारण स्वभाव ही है। जगत् के सभी पदार्थ (भाव) स्वभाववश अपने-अपने स्व-भाव-स्वरूप में उस-उस प्रकार से रहते हैं, और किसी की इच्छा के बिना ही फिर स्वभाव से निवृत्त हो जाते है। कालादि के मौजूद रहने पर भी स्वभाव के बिना अभीष्ट कार्य नहीं होता। एक स्त्री युवावस्था में है, उसका शरीर भी स्वस्थ और सशक्त है, पति का योग भी है, फिर भी सन्तानोत्पत्तिरूप.अभीष्ट कार्य नहीं होता, क्योंकि वह वन्ध्या है। संतान रहित रहना वन्ध्या का स्वभाव है। १. (क) को करइ कटयाणं, तिक्तत्तं मिय-विहंगमादीण। विविहत्तं तु सहाओ, इदि सव्वंपि य सहाओत्ति। -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ८८३ (ख) कः कण्टकानां प्रकरोति तैष्ण्य, विचित्रभावं मृग-पक्षिणा च।। - स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः?।-सूत्रकृतांग टीका (ग) बुद्धचरित ५२ तथा १८/३१ . २. (क) भगवद्गीता ५/१४ (ख) महाभारत शान्तिपर्व २५/१६ ३. (क) शास्त्रवासिमुच्चय २/१७१-१७२ (ख) सर्वे भावाः स्वभावेन स्व-स्वभावे तथा तथा। ... वर्तन्तेऽथ निवर्तन्ते कामचार-पराङ्मुखाः ॥ -शास्त्रवार्तासमुच्चय २/५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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