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________________ ३०.६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) कालवाद का निराकरण शास्त्रवार्तासमुच्चय' तथा माठरवृत्ति कारिका में किया गया है। स्वभाववाद -‍ -मीमांसा स्वभाववाद भी अपने अनूठे तर्क और दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। स्वभाववाद का कहना है कि जगत् में जो कुछ भी कार्य हो रहे हैं, वे सब पदार्थों के अपने-अपने स्वभाव के प्रभाव से हो रहे हैं। इसमें काल, नियति, कर्म आदि क्या कर सकते हैं? आम की गुठली में ही आम का वृक्ष और फल होने का स्वभाव है, नीम की निम्बोली में आम का वृक्ष या फल होने का स्वभाव नहीं है। इसलिए निम्बोली में ही नीम का पेड़ और फल होने का स्वभाव है। गन्ना मीठा और नीम तथा करेला आदि स्वभाव से ही कड़वे क्यों होते हैं? इसमें उनका अपना-अपना स्वभाव ही कारण है। सूर्य और अग्नि स्वभाव से गर्म हैं, चन्द्रमा शीतल है, क्या काल, नियति या कर्म इन्हें ठंडा या गर्म करते हैं? इनका स्वभाव ही वैसा है। बर्फ का स्वभाव ही ठंडा है। क्या काल उसे गर्म कर सकता है ? काल हजारों वर्षों तक मंडराता रहे तो भी वटवृक्ष पर आम का फल, गुलाब के पौधे पर चम्पा, चमेली आदि के फूल उत्पन्न नहीं कर सकता। सभी वस्तुएँ, सभी प्राणी और सभी घटनाएँ अपने- अपने स्वभाव को लेकर होती हैं। स्वभाव न हो तो काल बेचारा क्या कर सकता है ? कोई भी द्रव्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, इसमें काल का क्या काम है ? जिसका जैसा स्वभाव होता है, वैसा ही उसका परिणाम या परिपाक होता है। प्रकाश की प्रकाशकर्त्री शक्ति, अन्धकार की अन्धकारशक्ति तथा वायु की अप्रतिबद्ध एवं अदृश्य गतिवाहनशक्ति स्वभाव की ही आभारी है। पर्वत का स्थिर रहना, हवा का चलना, नदी और झरने का बहना, समुद्र में उत्ताल तरंगें उठना, सरोवर के जल का शान्त रहना आदि सब स्वभाव के कारण ही हैं। क्या काल इन्हें वैसा बनाता है ? काष्ठ चाहे जितना बड़ा या भारी भरकम क्यों न हो, पानी पर तैर जाता है और लोहे का छोटा-सा टुकड़ा पानी में डालने पर डूब जाता है, १. (क) शास्त्रवार्तासमुच्चय २५२-९ (ख) माठरवृत्ति, का. ३१ स्वभाववाद - बोधक निम्नोक्त श्लोक प्रसिद्ध हैंनित्यसत्त्व भवत्यन्ये, नित्यासत्त्वाश्च केचन । विचित्राः केचिदित्यत्र तत्स्वभावो नियामकः ॥ अग्निरुष्णो जल शीत, समस्पर्शस्तथानिलः । केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः॥ २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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