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कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद- १
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छाछ का जाबण डालने के बाद अमुक काल के बाद ही उसका दही जमता है। वृक्ष में फल भी अमुक समय के बाद ही पकता है, पहले नहीं ।
काल के पके बिना स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति आदि भी कुछ नहीं कर सकते। अच्छे-बुरे कर्मों का फल भी तुरंत नहीं मिलता, योग्य समय आने पर ही उनका फल प्राप्त होता है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य तपता है और शीत ऋतु में ठंड पड़ती है। ग्रीष्म ऋतु में बर्फ और वर्षा नहीं पड़ती। कई बार मनुष्य के द्वारा प्रयत्न करने पर भी कार्य नहीं होता, वह समय आने पर ही यथायोग्य ढंग से हो जाता है।
सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग अथवा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालचक्र के छह-छह आरे, तथा उस उस समय जनता के भाव काल के आधार पर परिवर्तित होते रहते हैं। अकाल में कोई भी वस्तु नहीं बनती। समय आये बिना उस वस्तु को बनाने का चाहे जितना प्रयत्न किया जाए नहीं बनती, प्रत्युत सारी मेहनत बेकार जाती है। अतः कोई कार्य बनने, न बनने का कारण काल है। समय पक जाने पर उस वस्तु के बनने को कोई रोक नहीं सकता। अकाल में आम नहीं पकते । मोसंबी, अंजीर आदि फल तथा चने, गेहूँ आदि अन्न सर्दियों में ही होते हैं। मोठ, बाजरी चौमासे में ही होती है । .
भारतवर्ष में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ अपने-अपने समय पर ही आती हैं। दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद पुनः दिन आता है। अमुक समय होने पर ही सूर्य और चन्द्रमा, नक्षत्र और तारे गगनमण्डल में उदित होते हैं। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था काल की महत्ता को ही उजागर कर रही हैं। जीवन के इन तीन पड़ावों में उस-उस अवस्था में योग्य भाव, हार्दिक विकास, बौद्धिक बल एवं शक्तियों का विकास-ह्रास भी काल का ही आभारी है। वस्तुएँ गलती हैं, सड़ती हैं, विध्वस्त होती हैं, उनका रंग-रूप बदल जाता है, उनकी कार्यक्षमता भी उत्तरोत्तर कम हो जाती है, इसमें काल ही कारण बनता है। प्रत्येक चौबीसी में चौबीस तीर्थंकर तथा बारह चक्रवर्ती होते हैं, वे भी अपने-अपने समय में आते हैं। उसी समय में होते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकाल के अमुक-अमुक आरे में ही ये होते हैं, अन्य आरों में ये जन्म नहीं लेते।
निष्कर्ष यह है कि समस्त क्रियाओं, घटनाओं, बनावों तथा समग्र भाव और विनाश का कारण सिर्फ काल है। काल के सिवाय अन्य कारण योजना निरर्थक बौद्धिकं व्यायाम करना है।
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