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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक ९ इस प्रकार किया गया है-"इन्द्रिय-निरपेक्ष आत्मजन्य केवलज्ञानरूप सकल-प्रत्यक्ष के द्वारा शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है, तथा अवधिज्ञानमनःपर्यवज्ञान रूप देश-प्रत्यक्ष के द्वारा कर्म-नोकर्मयुक्त अशुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है। २. आत्मा प्रत्यक्ष भी है-गणधरवाद में गणधर इन्द्रभूति गौतम को भगवान् महावीर ने कहा-"तुमने जो यह कहा कि आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है, यह कथन प्रत्यक्ष से बाधित है, जैसे कि शब्द का श्रवण द्वारा प्रत्यक्ष होता है, फिर भी कोई कहे कि शब्द तो अश्रावण है, अर्थात्-वह कर्णग्राह्य नहीं, उसी प्रकार आत्मा अहंप्रत्यय ('मैं हूँ' इस प्रकार के कथन) द्वारा प्रत्यक्ष होने पर भी अनुमान करते हो कि आत्मा का अस्तित्व ग्राहक पांचों प्रमाणों से बाधित है । 'आत्मा नहीं है', यह तुम्हारा (गणधर गौतम का) पक्ष अनुमान-बाधित है । आगे आत्मसाधक अनुमानों का प्रतिपादन किया जाएगा । 'मैं संशय कर्ता हूँ' यह बात स्वीकार करने के पश्चात् आत्मा नहीं है' (अर्थात्-मैं नहीं हूँ) ऐसा कथन करने से तुम्हारा पक्ष स्व-स्वीकार से भी बाधित होता है । आशय यह है कि मैं संशयकर्ता हूँ, यह कहकर 'मैं' का स्वीकार तो हो गया, अब 'मैं नहीं हैं। ऐसा कहकर 'मैं' का निषेध करते हो । अतः 'मैं' के निषेध की बात अपने प्रथम स्वीकार से ही बाधित हो जाती है ।" "आत्मा नहीं है', यह तुम्हारा पक्ष लोकविरुद्ध भी है; क्योंकि अनपढ़ लोग भी आत्मा को स्वीकार करते हैं । जैसे-कोई व्यक्ति शशि को अचन्द्र कहे यह लोकविरुद्ध है, वैसे ही 'मैं आत्मा नहीं' अर्थात्-'मैं', मैं नहीं, ऐसा कथन 'मेरी मां वन्ध्या है, इस कथन के समान स्ववचन-विरुद्ध भी है"। - ३. सर्वज्ञ को आत्मा प्रत्यक्ष है, छद्मस्थ को आशिक प्रत्यक्ष-"हे इन्द्र भूति गौतम। तुम्हें भी आत्मा का प्रत्यक्ष है । तुम्हारा यह प्रत्यक्ष आंशिक है, आत्मा का सर्व प्रकार से पूर्ण प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु मुझे उसका सर्वथा पूर्ण प्रत्यक्ष है । तुम छद्मस्थ हो, वीतराग नहीं । अतः तुम्हें वस्तु का आंशिक साक्षात्कार होता है । अतः तुम्हें वस्तु के अनन्त स्व-पर-पर्यायों का १ (क) जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्ख ।" -प्रवचनसार गा. ५८ (ख) वही गा. ५९ (ग) सर्वद्रव्य पर्याय विषयम् सकलम्--न्यायदीपिका पृ. ३६ (घ) तत्त्वार्थ वार्तिक २/८/१८ २ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५५७ (अनुवाद) पृ. ९-१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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