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८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) हैं । इस विषय में अदृष्टार्थ विषयक आगम यों अनुमानरूप होता है"स्वर्ग-नरकादि का प्रतिपादक वचन प्रमाण रूप है, क्योंकि वह चन्द्रग्रहण आदि वचन के समान अविसंवादी वचन वाले आप्तपुरुष का वचन है" किन्तु अदृष्टार्थ जीव के विषय में ऐसा अनुमानरूप प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा कोई भी आप्तपुरुष सिद्ध नहीं है, जिसे आत्मा प्रत्यक्ष हो, जिसके आधार पर इस सम्बन्ध में उसका वचन प्रमाण माना जाए । तथा अप्रत्यक्ष होने पर भी जीव का अस्तित्व मान लिया जाए । अतः आगम, . प्रमाण से भी जीव की सिद्धि सम्भव नहीं । फिर तथाकथित आगम भी आत्मा (जीव) के स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हैं बल्कि कई आगमों के मत तो परस्पर विरोधी हैं । इसलिए आगम-प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है।
४. उपमान-प्रमाण से भी जीव असिद्ध है-विश्व में कोई भी अन्य पदार्थ आत्मा जैसा नहीं है, जिसकी उपमा आत्मा से दी जा सके । आत्म-सदृश कोई पदार्थ न होने से आत्मा सम्बन्धी ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः उपमान-प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती' ।'
५. अर्थापत्ति-प्रमाण से भी आत्मा,सिद्ध नहीं हो सकती-संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जिसका अस्तित्व उसी दशा में सिद्ध हो, जब आत्मा को माना जाए । अतः अपित्ति द्वारा भी आत्मा की सिद्धि शक्य नहीं है। जैनदर्शन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
भगवान् महावीर ने इन्द्र भूति गौतम की उपर्युक्त शंकाओं क सयुक्तिक समाधान किया है, जिसका विस्तृत विवरण गणधरवाद में अंकित है । हम यहाँ विस्तृत रूप से जैन दर्शन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की चर्चा करेंगे । इसी के अन्तर्गत गणधर इन्द्रभूति गौतम की शंकाओं का भी समाधान समाविष्ट कर लिया गया है । जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि विभिन्न प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है।
१. प्रत्यक्ष से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि-'आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है, इसलिए उसका अभाव है,' इस कथन का निराकरण तत्त्वार्थराजवार्तिक में
१ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५५२ (अनुवाद) पृ. ५ २ वही, (गणधरवाद) गा. १५५३ (अनुवाद) पृ. ६ ३ वही, (गणधरवाद) गा. १५५३ (अनुवाद) पृ. ६
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