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१० कर्म-विज्ञान : कम का अस्तित्व (१)
साक्षात्कार नहीं हो सकता, किन्तु वस्तु का आंशिक साक्षात्कार होता है । जैसे घटादि पदार्थ दीपक आदि से अंशतः प्रकाशित होने पर भी कहा जाता है, घट प्रकाशित हुआ । इसी प्रकार छद्मस्थ के द्वारा घटादि पदार्थों का आंशिक प्रत्यक्ष होने पर भी घट प्रत्यक्ष हुआ, ऐसा व्यवहार होता है । इसी आधार पर आत्मा का तुम्हें आंशिक प्रत्यक्ष होने पर भी व्यवहार में कहा जाएगा, तुम्हें आत्मा का प्रत्यक्ष हो गया । मैं केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) हूँ, मेरा ज्ञान अप्रतिहत, अनन्त और पूर्ण है, इसलिए मुझे आत्मा का पूर्णरूप से प्रत्यक्ष है । तुम्हारी शंका अतीन्द्रिय थी, अतः बाह्य इन्द्रियों से अग्राह्य थी, . फिर भी मैंने उसे जान ली। यह बात तुम्हें प्रतीतिसिद्ध है । इससे तुम समझ लो कि मुझे आत्मा का पूर्ण साक्षात्कार हुआ है।
४. इन्द्रिय-प्रत्यक्ष न होने पर भी आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं होताजैनदर्शन इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को परोक्ष मानता है । इसलिए इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष न होने से, उसका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय वस्तुओं को ग्रहण नहीं कर सकतीं । इसलिए वे अग्राहक हैं, सर्वज्ञ आत्मा ही प्रत्यक्ष ग्राहक है । इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उन-उन गृहीत विषयों की स्मृति होती है । जिस प्रकार खिड़की के नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखने वाला विद्यमान रहता है, इसी प्रकार इन्द्रियरूपी खिड़कियों से देखने वाले आत्मा की सत्ता रहती है ।
५. स्व-संवेदन-प्रत्यक्ष-शास्त्रवार्ता-समुच्चय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, स्याद्वादमंजरी आदि ग्रन्थों में स्व-संवेदन-प्रत्यक्ष से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है । जिस प्रकार सुख-दुःख का स्व-संवेदन प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध होता है । जो प्रत्यक्ष (स्वसंविदित) हो, उसकी सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण अनावश्यक है । उसी प्रकार 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इत्यादि वाक्यों में 'मैं प्रत्यक्ष के द्वारा अतीन्द्रिय आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है । 'मैं हूँ' यह ज्ञान भ्रान्त नहीं है, और न 'मैं' से शरीरादि का बोध होता है । आत्मा का यह स्वभाव भी है कि वह आत्मा के द्वारा आत्मा को जानता है । यह बात अनुभवसिद्ध भी है । इस प्रकार 'मैं' विषयक प्रत्यक्ष अनुभव से स्वयं ज्योतिस्वरूप आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
वेदान्त दर्शन में बताया गया है कि सभी को अपने (आत्मा के) अस्तित्व की प्रतीति 'मैं हूँ' इस प्रकार से होती है । किसी को यह प्रतीति १ विशेषावश्यकभाष्य (गणधरवाद) गा. १५६३ पृ १२ २ (क) जं पड़दो विण्णाणं तं तु शोमवंति । प्रवचनसार गा. ५८
(ख) तत्त्वार्थ वार्तिक २/८/५८
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