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________________ कर्मवाद का आविर्भाव २३९ इसके लिए सर्वप्रथम निम्नोक्त कहावत "Charity begins at home" के अनुसार स्वयं से प्रारम्भ किया। स्वयं सर्वविरत महाव्रती अनगार बने और जिनशासन (धर्म-संघ) का निर्माण किया। प्रथम तीर्थंकर बने । राज्यशासन अपने दोनों प्रतापी एवं शासनकुशल पुत्रों - भरत और बाहुबली को सौंपा। और शेष ९८ पुत्रों को छोटे-छोटे राज्यों के शासक बनाए । भगवान् ऋषभदेव के साथ ४००० अन्य व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने अपने धर्मसंघ (जिनशासन) में दो प्रकार के धर्मों का प्रतिपादन किया। सद्गृहस्थों के लिए श्रावकधर्म और साधु-साध्वियों के लिए साधु धर्म । ' दोनों धर्मों का लक्ष्य एक ही था - कर्मों से सर्वथा मुक्ति पाना, मोक्ष प्राप्त करना। बाद में उनके ९९ पुत्रों और दो पुत्रियों (ब्राह्मी और सुन्दरी) ने भी साधु धर्म की दीक्षा अंगीकार की । धर्म, कर्म, संस्कृति आदि का श्रीगणेश निष्कर्ष यह है कि भगवान् ऋषभदेव से पूर्व उस युग में धर्म, कर्म, संस्कृति और सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था। उन्होंने उस युग की जनता को ग्राम और नगर बसाकर, सभ्यता और संस्कृति का प्रशिक्षण दिया, कर्मवाद से भलीभांति परिचित किया। अशुभकर्म करने से रोका, शुभकर्म से भी आगे बढ़कर शुद्ध धर्म का पालन करने और कर्मों से मुक्त होने अथवा कर्मक्षय करने की प्रेरणा दी। कर्म को ही सृष्टि की विविधता एवं विचित्रता का कारण बताया उन्होंने प्रारम्भ से ही धर्मप्रधान समाज रचना की, उसमें अर्थ और काम को गौण रखा और मोक्ष पुरुषार्थ को जीवन का अन्तिम लक्ष्य बताया। इसमें कहीं भी उन्होंने देवी, देव या किसी प्राकृतिक शक्ति (इन्द्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, यम, मरुत आदि) का आश्रय लेने, उसके आगे गिड़गिड़ाने, उसकी मनौती करने अथवा उसके कारण से लोकोत्तर आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त करने का विधान नहीं किया। न ही उन्होंने यह बताया कि सृष्टि में विविध प्रकार के पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों एवं मनुष्यों और उनमें भी सुखी दुःखी, उन्नत - अवनत, अल्पायु - दीर्घायु, बुद्धिमान् अथवा मन्दबुद्धि, योग्य-अयोग्य, सुडौल - बेडौल आदि विचित्रताओं के होने का कारण कोई ब्रह्मा, इन्द्र या कोई शक्ति - विशेष या पुरुष - विशेष (ईश्वर) आदि है अर्थात् - इस सृष्टि की रचना (निर्माण) या संवर्धन अथवा इन विचित्रताओं और विविधताओं का निर्माण किसी शक्ति- विशेष या पुरुष - विशेष द्वारा १. विस्तृत वर्णन के लिए देखिये - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, कल्पसूत्र, आदिपुराण, त्रिषष्टि . शलाका पुरुष चरित्र आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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