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________________ २४० · कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) हुआ है। बल्कि उन्होंने सृष्टि के प्राणियों की विविधता एवं विचित्रता का कारण बाह्य तत्त्वों में ढूंढने और मानने की अपेक्षा अन्तरात्मा (अन्तरंग) में ढूंढने व मानने की प्रेरणा दी तथा जनता को यही उपदेश दिया कि तुम्हारे एवं सभी जीवों के ही अपने पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप ये सब विविधताएं. एवं विचित्रताएँ हैं। ये अच्छे या बुरे निमित्त सभी के अपने-अपने कृतकों के आवरणयुक्त उपादान (आत्मा) के कारण मिले हैं। भविष्य में भी तुम्हें या सभी प्राणियों को अपने द्वारा किये हुए अच्छे या बुरे (शुभ या अशुभ) कों के फल अच्छे या बुरे रूप में तत्काल भी मिल सकते हैं, कुछ देर-सबेर से भी। परन्तु जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें मिलने वाला है, दूसरे प्राणियों को भी अपने अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार शुभ-अशुभ फल प्राप्त होंगे। इसका ज्वलन्त प्रमाण है, उनके स्वयं के द्वारा तथा उनके पुत्रों द्वारा कर्ममल से आवृत अपनी आत्मा को उज्ज्वल-समुज्ज्वल बनाने तथा परमविशुद्ध मोक्ष सुख-अनन्त आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए किसी. शक्तिविशेष, देवविशेष, पुरुषविशेष का आश्रय न लेकर एकमात्र मुनिधर्म दीक्षा अंगीकार करके तप-संयम एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की साधना में स्वयं पुरुषार्थ करना। उन महान् आत्माओं को तथा भगवान् ऋषभदेव के द्वारा प्रेरि अनुगामी आत्माओं को अनन्तज्ञान-दर्शन, अनन्त-शक्ति एवं अनन्त आत्मिक आनन्द की जो उपलब्धि हुई, वह भी किसी शक्तिविशेष के वरदान से नहीं, किन्तु तप, त्याग, संयम एवं रत्नत्रय की साधना-आराधना में अपने ही विवेकपूर्वक पुरुषार्थ से हुई थी। जैनागमों एवं आदिपुराण, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि ग्रन्थों से यह स्पष्टतः प्रमाणित है। कर्मवाद का प्रथम उपदेश : भ. ऋषभदेव के द्वारा __उन्होंने संसार की विषमताओं से पीड़ित एवं व्यथित अपने ९८ पुत्रों को जो उपदेश दिया, वह भी भागवत-पुराण एवं जैनागम-सूत्रकृतांग सूत्र में अंकित है। उस उपदेश से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उन्होंने अपने गृहस्थाश्रमपक्षीय पुत्रों को न तो स्वयं ही वरदान दिया है और न ही किसी इन्द्र, कुबेर, ब्रह्मा आदि देवविशेष या पुरुषविशेष की मनौती करके सुखी होने का उपाय बताया है, बल्कि उन्होंने उनकी कर्ममलावृत आत्माओं को अपने तप-संयम के पुरुषार्थ से कर्मविमुक्त शुद्ध बनाकर मोक्ष का राज्य अथवा मोक्ष का अव्याबाध सुख (अनन्त आनन्द) प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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