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________________ २३८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) ___ इन सब कलाओं, विद्याओं, शिल्पों आदि से जनता को प्रशिक्षित करने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि जनता परस्पर संघर्षशील एवं कषायाविष्ट होकर अशुभ (पाप) कर्म से बचे तथा भविष्य में शुभ कर्म करते हुए शुद्धपरिणति की ओर मुड़कर संवर-निर्जरारूप आत्म-धर्म की ओर मुड़ सके। अगर भगवान् ऋषभदेव उस समय की यौगलिक जनता को इन सात्विक कार्यों का उपदेश एवं प्रशिक्षण न देते तो बहुत सम्भव था, जनता. परस्पर लड़-भिड़कर, संघर्ष और कलह करके तबाह हो जाती। सबल लोग निर्बलों पर अन्याय-अत्याचार करते, उन्हें मार-काटकर समाप्त कर देते, अथवा अत्याचार एवं शोषण से पीड़ित जनता रोटी, रोजी, सुरक्षा एवं शान्ति के अभाव में स्वयं ही समाप्त हो जाती, या फिर वह पीड़ित जनता विद्रोह, लूट, मार-काट और अराजकता पर उतर जाती। इस प्रकार अराजक एवं निरंकुश जनता हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार आदि पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाती। कर्ममुक्ति के लिए धर्मप्रधान समाज का निर्माण ___ निष्कर्ष यह है कि उस समय की जनता जिस भूमिका में थी, उस भूमिका के अनुरूप भगवान् ऋषभदेव ने उसे विविध कलाएँ, विद्याएँ, शिल्प और कर्मों का प्रशिक्षण भविष्य में सम्भावित पापकर्म से विरत करने और शुद्ध (धर्म) की ओर मोड़ने हेतु कम से कम शुभकर्म (पुण्य) में टिकाने का प्रयास किया था। यही कारण है कि भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समग्र जनता को राज्यसंगठन (राज्यशासन) में आबद्ध किया । फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ग के लोगों को प्रशिक्षण देकर जनशासन (जनसंगठन) बनाया। सबको अपने-अपने लोक-धर्म (कर्तव्य) का मार्गदर्शन किया । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव ने शुभकर्म (सात्विक काय) और धर्म दोनों से सम्बन्धित तथ्यों का मार्गदर्शन दिया। तत्कालीन समग्र जनता ने उन्हें विधिवत् राज्याभिषेक करके अपना राजा और जननायक बनाया। जब भगवान् ने देखा कि अब राज्यशासन और जनशासन दोनों व्यवस्थित ढंग से चल रहे हैं। नैतिकताप्रधान शुभकर्म एवं लोकधर्म दोनों जनजीवन में व्याप्त हो गए हैं। हाकार, माकार और धिक्कार, इन तीनों दण्डक्रमों के कारण जनता में अराजकता, अनीति, अन्याय-अत्याचार आदि अपराध बहुत ही कम हो पाते थे। परन्तु भगवान् ऋषभदेव को तो समग्र जनता को शुद्ध-लोकोत्तर धर्म-पालन की ओर मोड़ना था, ताकि जनता कर्मों से मुक्त होने का पुरुषार्थ कर सके और शुद्ध (स्वभावरूप), बुद्ध, मुक्त (सिद्ध) परमात्मा बन सके। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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