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________________ कर्मवाद का आविर्भाव २३७ ऐसी स्थिति में यौगलिक जनता उस युग के कुलकर नाभिराय के सान्निध्य में पहुँची और अपने वर्तमान संकट के निवारण के लिए उपाय पूछने लगी। नाभिरायजी ने अपने सुपुत्र भावी तीर्थंकर ऋषभदेव के पास जाने और उनसे परामर्श एवं मार्गदर्शन लेने को कहा। अतः मुख्य-मुख्य लोग मिलकर श्रीऋषभदेवजी की सेवा में पहुँचे और संकटापन्न परिस्थिति के निवारण की प्रार्थना की। कर्मभूमिक कालानुसार शुभकर्म युक्त जीवन जीने की प्रेरणा भगवान् ऋषभदेव' उस युग में परम-अवधिज्ञान सम्पन्न महान् पुरुष थे। उन्होंने यौगलिकजनों के असन्तोष और पारस्परिक संघर्ष के कारण और उसके निवारण का उपाय बताते हुए कहा-"प्रजाजनो! अब भोगभूमिकाल समाप्त हो चला है, और कर्मभूमि-काल का प्रारम्भ हो चुका है। अब तुम लोग उसी पुराने ढर्रे के अनुसार प्राकृतिक सम्पदाओं से ही अपना निर्वाह करना चाहो, यह सम्भव नहीं है। तुम देख ही रहे हो कि जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और वनसम्पदा या प्राकृतिक सम्पदा कम होती जा रही है। ऐसी स्थिति में अब तुम्हें कर्मभूमि के अनुसार जीवन-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ कर्म (वर्तमानकालिक पुरुषार्थ) करना चाहिए। इसके बिना कोई चारा नहीं है। तुम चाहो कि कुछ भी कर्म (कार्य या प्रवृत्ति) न करना पड़े और प्रकृति से सीधे ही जीवन-निर्वाह के साधन मिल जाएँ, ऐसा अब नहीं हो सकता। यद्यपि किसी भी क्रिया या प्रवृत्ति के करने से कर्मों का आगमन (आस्रव) अवश्यम्भावी है और तुम लोग एकदम कर्म से अकर्म (कर्ममुक्त) स्थिति प्राप्त कर लो, यह भी अभी अतीव दुष्कर है तथापि क्रिया करते समय अगर तुम में राग, द्वेष, आसक्ति, मोह, ममता आदि कम होंगे और सावधानी एवं जागृति रखी जाएगी तो.पापकर्मों का बन्ध नहीं होगा। इसलिए गृहस्थ-जीवन की भूमिका में तुम्हें वे ही कर्म (क्रिया या प्रवृत्तियाँ) करने हैं, जो अत्यन्त आवश्यक हों, सात्विक हों, अहिंसक हों, परस्पर प्रेमभाववर्द्धक हों।' - इसके लिए उन्होंने मुख्यतया असि, मसि और कृषि ये तीन मुख्य कर्म एवं विविध शिल्प तथा कलाएँ उस समय के स्त्री-पुरुषों को सिखाई। कृषि कर्म, कुम्भकार कर्म, गृहनिर्माण, वस्त्रनिर्माण, भोजननिर्माण आदि कर्म उन्होंने स्वयं करके जनहित की दृष्टि से जनता को सिखाए। १. देखिये-जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्र में भ. ऋषभदेव के युग का वर्णन। २. (क) शशासु कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा -बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रथम वक्षस्कार (ग) 'पयाहियाए उवदिसई ।' - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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