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आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक ३
आत्मा का अस्तित्व: कर्म-अस्तित्व का परिचायक
समग्र आस्तिक दर्शनों का केन्द्र बिन्दु आत्मा है । आत्मा को केन्द्र मानकर ही यहाँ पर समस्त प्राणियों के सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवनमरण, निन्दा-प्रशंसा, विकास-ह्रास, उन्नति-अवनति, हित-अहित, आदि के कारणों पर विचार किया गया है । आत्मा की दृष्टि से ही पुण्य-पाप, कर्म, बन्ध, मोक्ष, आम्रव, संवर, हेय-ज्ञेय-उपादेय, शुद्धि-अशुद्धि, गुण-अवगुण, सम्यक्ज्ञान, मिथ्या-ज्ञान, सुदर्शन-कुदर्शन, सम्यक्चारित्र-कुचारित्र, सम्यक्-असम्यक् तप, त्याग-प्रत्याख्यान प्रभृति विषयों के सम्बन्ध में गहन चिन्तन-मनन किया गया है । यद्यपि इन सबका मूल कर्ता-धर्ता स्वयं आत्मा है और कर्म के कारण ही आत्मा इन सब में प्रवृत्त होता है । . . आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है । यही आत्मा की विभाव दशा है । आत्मा के राग-द्वेष, मोह, अज्ञान आदि भाव इन विभाव भावों की उत्पत्ति में निमित्त हैं । आत्मा के रागादि भावों के कारण योगों के निमित्त से कार्मण आदि वर्गणाएँ आकर्षित होकर आत्मा के साथ प्रतिपल-प्रतिक्षण सम्बन्धित होती हैं। उन्हें कर्म की संज्ञा प्रदान की गई है जो स्थिति और रस को लिए हुए होती है । आत्मा स्वतःसिद्ध चैतन्य स्वरूप है । फिर भी वह अपने स्वरूप के प्रति अनभिज्ञ है, अनजान है । इसका कारण है-कर्मों का सघन अवरण । कर्म पौद्गलिक है, वह जड़ स्वरूप है । आत्मा प्रति समय अज्ञान एवं मोह के कारण राग-द्वेष आदि भाव स्वयं कर रहा है, जिसमें कर्म का उदय निमित्त है और इन रागादि भावों के होने में कर्म के उदय के फलस्वरूप बाह्य में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बचन, स्वजन, परिजन, भवन प्रभृति वस्तुएँ एवं परिस्थितियाँ निमित्तभूत होती हैं । यही आत्मा की विभाव दशा है । कर्मों के बन्ध का मूल कारण. भाव का राग-द्वेष, मोह है जिसका अन्तरंग कारण मोहनीय, ज्ञानावरणीय,
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