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४ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
दर्शनावरणीय, अन्तराय आदि घाती कर्म है । और बहिरंग में अघाती कर्म के उदय के फलस्वरूप शरीर, स्त्री, पुत्र तथा अन्य वस्तुएँ हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और वही निरोध कर्ता और क्षय करता है । आत्मा का कर्तृत्त्व तीन प्रकार से सिद्ध होता है । स्वभावतः आत्मा अपने स्वरूप का कर्ता है । इसे दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि अपने ही अभिन्न ज्ञानादि गुणों का वह कर्ता है जिसमें किसी भी विजातीय द्रव्य का बाह्य निमित्त अपेक्षित नहीं है । यह निश्चय नय से कपिन है।
__ कर्म के तीन प्रकार हैं-भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म । जीव स्वयं की अज्ञान दशा से कर्म सहित होने के कारण राग-द्वेष- मोह आदि भाव का कर्ता है । इसमें कर्म का उदय, शरीर आदि बाह्य परिग्रह निमित्त हैं । ये पर-भाव हैं । पर-भाव, पर-अधीनता से उत्पन्न होते हैं । वस्तुतः जीव की यही विभाव दशा है । यह संयोगी भाव भी कहलाते हैं । क्योंकि ये भाव परलक्ष्य से पराश्रित होकर समुत्पन्न होते हैं । वे विविध रूप में होते हैं । विभाव क्षणभंगुर और विनाशशील हैं । यह स्मरण रहे कि कोई भी संयोगी पदार्थ शाश्वत नहीं होता । इसलिए ये भाव जीव के स्वभाव नहीं हैं । जीव शाश्वत और नित्य है । यदि जीव परलक्ष्य का परित्याग कर, पराधीनता से पराङ्मुख होकर अपने ही निज चैतन्य स्वभाव का लक्ष्य करे, परिचय करे, उसे अपने स्वभाव का भान हो तो वह स्वभाव भाव उत्पन्न कर सकता है, जो शाश्वत और ध्रुव है ।
द्रव्यकर्म जीव के राग-द्वेष आदि भावकर्म के कारण योग के निमित्त से होते हैं । अन्तरंग कारण मोहनीय कर्म का उदय है और बाह्य कारण है- अघाती कर्मों का उदय । जिसके फलस्वरूप वस्तु का इष्ट-अनिष्ट, राग-द्वेष आदि भाव कर्ता है । जिसे आत्म-प्रदेशों के आस-पास रही हुई कार्मण वर्गणाएँ अपने आप खिचकर (आत्मा के प्रदेशों में पहले से ही कर्म विद्यमान हैं) उनसे सम्बन्धित हो जाती हैं । इन कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध अमुक स्थिति व रस लिए हुए होता है । और इन कर्मों के उदय में जीव पुनः राग-द्वेष आदि भाव कर नये कर्मों को बांधता रहता है । यह कर्म सहित जीव की विभाव दशा है। १ (क) अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।। -उत्तराध्ययन २०/३६ (ख) अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ।।
-समयसार १२
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